मन का गीत
निज अन्तर्मन के भावों को, जबसे मैंने उन्मुक्त किया ।
संवेदनशील विचारों ने,
फिर ग्रंथ नया – सा रच डाला ।।
अभिलाषाओं का बोझ लिए ,
फिरता निश – दिन मारा-मारा।
पीड़ाओं के दावानल में , जलता यह तन हारा-हारा ।
इस जीवन के चक्रव्यूह को, भेदना जटिल था प्रश्न मगर –
अनुभव के सागर को मथकर ,
उत्तर इसका खोज निकाला ।।
मुझे भान कब औरों का बस ,
अपने सपनों में खोया था ।
चलता , थकता , गिरता दिन भर ,
औ ‘ रात-रात भर सोया था ।
शैय्या त्याग सुखों की जबसे, कर्म मार्ग पर चला अकेला –
अंतर्द्वन्द्व मिटा मन का सब , निजता का फिर टूटा ताला ।।
अवरोधों से लड़कर जाना , जीवन इतना सरल नहीं है।
समता और विषमता प्रतिपल ,
जग में कुछ भी अटल नहीं है ।
कालखण्ड के शिलालेख पर कलम सदा मूल्यांकन करती –
जन्म-मरण के मध्य छिपा है, जीवन का विस्तार निराला ।।
✍️ अरविन्द त्रिवेदी
महम्मदाबाद
उन्नाव उ० प्र०