मनुष्य
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मनुष्य तुम मनुष्य हो मनुष्य से मनुष्य की तरह मिलो।
मनुष्यता के वन,तड़ाग में प्रसन्न प्रसून की तरह खिलो।
मानवोचित पुरुष शुरू करो विश्व के कुटुंब का सिलसिला।
है अनेक वर्ष से निष्क्रिय पड़ा रहा बतास अब इसे डुला-हिला।
अब विहान हो रहा, छटा बिखर रही है सूर्य से ले ताप मांग।
लालिमा सिंदूर सी से भर बरफ का हर श्रृंगार व शुन्य माँग।
प्रजापति प्रजा सृजित कर सो गया यदि ढाँप देह।
बाँटने उठो मनुज तुम सृजन को अपार और सत्य स्नेह।
विध्वंसकारी युद्ध का तो बाहुबल है दर्प,गर्व व अहंकार।
और युद्ध हुआ मुदित है जब सुना है चीख और वह चीत्कार।
मनुष्यता मनुष्य की है सभ्यता,तुम असभ्य बनो नहीं।
मनुष्यता मनुष्य का है संस्कार,तुम असंस्कृत बनो नहीं।
मनुष्य हो चरम मनुष्यता के लिए जिओ,जीओ-मरो।
मनुष्य हो परम विचारवान तुम विवेक का पथ धरो।
विराट के प्रहार में शब्द है कभी नहीं,कभी नहीं व होगा भी।
भाँति जिस मनुष्यता का कर रहे प्रयोग ध्वंस वह होगा ही।
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