मनुष्यता बनाम क्रोध
आदमी में जिस अनुपात में
क्रोध आना घट जाता है
उसी अनुपात में उसका
सयानापन बढ़ता है
मनुष्यता सिकुड़ती है
और बढ़ती है भीरूता
गो कि इस भीरूता में भी
सहजकर आदमियत
पा ली जाती है अक्सर!
गुस्से का संभार
जरूरी हिस्सा होना चाहिए
व्यक्तित्व का
अभ्यन्तर में तो निश्चित ही हमारे
प्रशांत सोता बहते रहना चाहिए इसका
बाहर बाहर चाहे वह भरसक
न हो अभिव्यक्त या कि प्रकट ऐसे
कि लगे गैरजरूरी हो!