मनुज से कुत्ते कुछ अच्छे।
मनुज से कुत्ते कुछ अच्छे।
जनसंख्या विस्फोट कर रहे बन कर के टुच्चे।
दिव्य चेत बिन नाच रहा नर, बनकर नंगा ।
बिना ज्ञान के बढ़े गरीबी ,बढ़ते दंगा ।
सँभल बुढापे, पलटवार करते हैं अब बच्चे।
मनुज से कुत्ते कुछ अच्छे ।
दारू पीकर शेषनाग बनती तरुणाई ।
गिर, नाली का पानी पी लेती जम्हाई।
खाॅस-खाँस लें श्वास रूप पर नाच रहे लुच्चे।
मनुज से कुत्ते कुछ अच्छे ।
बेटी शिक्षा की भूखी, निज घर में रोती।
पाषाड़ों-सी बनी, कुपोषित, दुख को ढोती ।
हे ईश्वर ! हम शांतआज भी बन करके कच्चे ।
मनुज से कुत्ते कुछ अच्छे ।
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●उक्त रचना/व्यंग्य को “जागा हिंदुस्तान चाहिए” काव्य संग्रह के द्वितीय संस्करण के अनुसार परिष्कृत किया गया है।
●”जागा हिंदुस्तान चाहिए” काव्य संग्रह का द्वितीय संस्करण अमेजोन और फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध है।
बृजेश कुमार नायक (pt Brijesh Nayak)
07-05-2017