मनुज न होता तो ऐसा होता
मनुज न होता तो ऐसा होता,
न उड़ान मेरे सपनों में होता,
पर्वत- निर्झर- सागर- तरुवर,
उड़ता- फिरता इधर- उधर फुर्र,
प्रात कलरव की देता सौगात,
ले मलय पर्वत से शीतल वात,
सुप्त जीव में नव- सुरभि नव- जागृति भरता,
मनुज न होता तो ऐसा होता ।
तिनका- तिनका से रचता आवास,
होते वहीं सारी खुशियों का वास,
होते वहीं नन्हे नन्हे बच्चे खास,
पत्तों के झिलमिल से होता प्रकाश,
ची- ची चुं- चुं से गुंजित वन- उपवन होता,
मनुज न होता तो ऐसा होता।
होकर पिंजरबद्ध क्या मैं गाऊँ,
अपनी व्यथित हृदय किसे दिखाऊँ,
जाने कैसे होंगे मेरे परिजन,
रोते होंगे या ढुँढ रहे होंगे मुझे वन- वन,
पराधीन से अच्छा था कहीं मरण,
बंद नयन से करूँ किस किस का सुमिरन,
जंजीर तोड़ अगर कहीं मैं उड़ पाता,
मनुज न होता तो ऐसा होता।
उमा झा🙏💕