मनहूस दिन के बीच
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आज मनहूसता से अचानक बाजार में सामना हो गया।
क्या महत्वपूर्ण कार्य संपादित करना था मन में ही खो गया।
वह मुस्कुराया,मैं झुँझलाकर भद्दी सी गली दे मारा।
खाली हाथ और भारी मन से अपनी चेतना को कोसा।
मशतिष्क के किस भाग में बसती है स्मृतियाँ?
सिर को बाएँ,दायें अगल-बगल ठीक-ठाक ठोका।
ठोस हिलता नहीं मूरखों की भांति रहता है दुबक।
तरल में प्रवाह है प्रवाह में विचारों की जीवंत शृंखला।
तरल सीमा में रहता है,मुझे तरल मन देना प्रभु।
वाष्प को भी लेते हैं कुरेद,वह क्यों व्यक्त करे खेद।
निराश हो जब पड़ा लौट। खुद में निकाला असंख्य खोट।
पटकता पैर, रास्ते में पड़े बेचारे पत्थरों को मारता ठोकर।
दोष जैसे उसका ही था जैसे अफसोस जाताना उसे था रोकर।
देहरी पार करने को था कि कौंधा मन देख पासबुक बैंक का।
दूर हुआ द्वंद। ।
हद होती है मूर्खताओं की,संदर्भों की पोटली भी हो जाए बंद।
ऐसा होता है क्या क्षण भर में की घेरती है मनहूसता।
विश्लेषण करो और चलो करते हैं पता।
मश्तिष्क का वह कोना जहां सुरक्षित रखे कार्य-सूची।
शीत निद्रा में जाता है सो या लेती है उड़ानें ऊंची।
आदमी होता नहीं मनहूस या समय का कोई टुकड़ा।
दूसरों पर सारे अकर्मों का थोपना होता है अपना दुखड़ा।
—————१/११/२१——————————————