चाय – पुराण ( हास्य व्यंग काव्य)
हे सांवली सलोनी,मनभावनी चाय
जब से आई तू मेरे जीवन में।
एक सुरूर सा छाया रहा हर सू,
सारे गम काफुर हो गए पल में।
तेरे विरोधियों ने लाख भहकाया,
डराया और धमकाया भी हमें।
मगर हम भी टस से मस न हुए,
फिर भी उठा ले आए प्याली हाथ में।
कौन है जमाने में ऐसा हमें बताओ,
जिसको कोई भी नशा नहीं है ।
दुनिया में सारे ही नशेड़ी है भाई !
हम ही गुनाहगार तन्हा नहीं है।
किसी को शराब का नशा है ,
तो किसी को रूप और जवानी का नशा।
किसी को इश्क और दौलत का नशा ,
तो किसी को पढ़ने और घुमक्कड़ी का नशा ।
हमें तो बस चाय का नशा है उसमें,
भी लोगों को एतराज है।
उन्हें क्या मालूम इसमें क्या है खूबी ,
और कौन सा इसमें राज है।
इसकी एक ही चुस्की हमारे ,
हलक से उतरती है ।
तन मन में शक्ति का संचार होता है,
एक उमंग सी जगती है ।
सारा तनाव, थकान और संताप ,
पल में दूर कर देती है ।
इसकी छोटी सी प्याली जाने कितनी ,
पीड़ाएं हर लेती है।
चाय नहीं मानती समय के बंधन को ,
जब चाहे तब लबों से लगा लो ।
चाय ना करे कोई किसी तरह का भेद,
जब जहां चार यार मिले महफिलें सजा लो।