“मत लड़, ऐ मुसाफिर”
“मत लड़, ऐ मुसाफिर”
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मत लड़, ऐ मुसाफिर,,,
मंजिल तेरी आने वाली है,
कुछ भी कर ले तू,
नहीं मिलेगा कुछ भी,
मंजिल पूरा खाली है,
जबतक सफर में साथ हो,
मिल-जुल कर चलना सीख,
क्यों तेरे मुख पे,यों गाली है।
मत लड़, ऐ मुसाफिर,,,,,
समय-चक्र चल रहा है,
वक्त सबको निगल रहा है,
फिर क्यों तू, मचल रहा है;
निज बारी का, इंतजार कर;
दुश्मन से भी, प्यार कर।
मत लड़, ऐ मुसाफिर,,,,
जब सफर तेरी पूरी होगी,
मानवता ही, जरूरी होगी,
फिर कौन साथ निभायेगा,
दोस्त हो या दुश्मन,
वही सदा,तेरे काम आएगा।
मत लड़, ऐ मुसाफिर,,,,
बैठ,वो भी दिन याद कर;
गुजरे वक्त का,जरा ध्यान धर;
जब फिरता तू, मारा-मारा;
कौन बना, तेरा सहारा;
किसने जिताया, कौन हारा।
मत लड़, ऐ मुसाफिर,,,,
सब धरा पे, धरा रह जाए;
जाते वक्त, क्यों तू पछताए;
ऐसा न, कुछ काम कर;
खूब पुण्य कर, खूब दान कर;
सदा ईश्वर का ध्यान धर।
मत लड़, ऐ मुसाफिर,,,,,,
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स्वरचित सह मौलिक;
….✍️पंकज ‘कर्ण’
……….कटिहार।।