मत्तगयन्द सवैया
मत्तगयन्द सवैया
रामहि संग सिया मनही मन रास रचाय लजाय रही हैं ।
प्रीत फुहार अगार पगार व तीनहुँ लोक लुभाय रही हैं ।
लोक बिसार बिसार सभी कुछ फाग व राग सुनाय रही हैं ।
बीच सभा सब दंग सिया मन ही मन क्यों मुसकाय रही हैं ।।
राहुल द्विवेदी ‘स्मित’
●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●
२)
कोमल अंग उमंग लिये मन फाग का’ राग सुना नहिं सोया ।
अंग व अंग मिले मन ही मन रंग व भंग ने’ अंग भिगोया ।
दूर पिया सुध में प्रियसी मन आज विचार विचार के’ रोया ।
अंग धुला मन भंग धुली पर अंग का’ रंग नहीं बस धोया ।।
राहुल द्विवेदी ‘स्मित’
●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●
३)
दग्ध हुई धरती जबसे सब ज्ञान का सार विसारन लागे ।
नीति -अनीति व धर्म -अधर्म विसार सभी मति मारन लागे ।
वेद- पुराण- कुरान -अजान व कर्म का’ मर्म अकारन लागे ।
राज व काज अकाज नहीं सब माल व हाल सुधारन लागे ।।
राहुल द्विवेदी ‘स्मित’
●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●
४)
राम के’ देश में शेष कहाँ अब नीति ,अनीति ,सुधर्म की बातें ।
कृष्ण न द्वापर से सुध लें जब, कौन कहे अब कर्म की’ बातें ।
चार दिशा बस गूँज रहीं अब अर्थ ,अनर्थ ,अधर्म की’ बातें ।
दीन व हीन, मलीन हुए मन कौन सुने सुचि मर्म की’ बातें ।
राहुल द्विवेदी ‘स्मित’