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30 Apr 2024 · 1 min read

मज़दूर

हर _तस्वीर कुछ कहती है ।
विधा -कविता
दिनांक – 7/10/ 18
दिन -रविवार
पसीना पहले, फिर खून के आँसू बनकर बहें धारे
बनाकर ताज चाहत का,नज़राना भेंट चढ़ते हम।
सुनो यूं ही नहीं बन जाती महल, पत्थर की दीवारें
हैं माटी ईंट पत्थर का, सिर पर बोझ उठाते हम ।
सुनो यूं ही नहीं बनते महल में,तरणताल फव्वारे
कमरतोड़ मेहनत करते रोज़,पेट भर धूल खाते हम।
न शिकवा और शिकायत, बदलती रोज सरकारें
मिले मंजिल अमीरों को, सैकड़ों मील चलते हम।
तमस बस और पतझड़ नीड़,नहीं जीवन में बहारें
हां,सूखे ठूंठ पर बैठे, विरह के गीत गाते हैं हम।
कटु सत्य है जीवन रोज़,महल माटी मजदूर नीलम
नुकीले शूलों पर हंसकर,नये करतब दिखाते हम।

नीलम शर्मा…….✍️
नई दिल्ली

1 Like · 174 Views
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