मजबूर सच
दिल पर पत्थर रखने के लिए मैं मजबूर था ,
मैं खुद का गुनाहगार हुआ बेकसूर था ,
सच्चाई के अल्फ़ाज़ों की आग से लब़ जलकर रह गए ,
झूठ के लबादों को ओढ़े मुजरिम साफ बचकर निकल गए ,
सच के सफर की थकान से बदन चूर चूर था ,
मुझ सा कोई मुसाफिर ना राह में दूर-दूर था ,
राह -ए- जीस्त में सराब भी हैं , जब से जाना ,
शि’आर- ए – जीस्त के सच को , तब मैने पहचाना,