मजबूर ! मजदूर
उतरती है बंदिशें मैं ही पिसता हूं
मजबूर ! मजदूर
उस सीमा से आता हूं ।
टूटकर बिखरता नहीं
नीड़ को लौटता तिनकों को जोड़ने ,
उम्मीद का दीप जलाएं
मेरी कोई आवाज नहीं
हां ! उनकी आवाज़ में
मैं अवश्य रहता हूं ।
वाणी और कागज में
उत्थान चल रहा है ,
सदियों से मेला चल रहा है
आदमी ! आदमी को छल रहा है ,
धर्म को पोटली में बांध बेचा जाता हूं
खिलौने के मानिंद
खिलौना से मन बहल जाता है
पेट नहीं भरता ।
ठगा देखता हूं , शून्य की ओर
कोई गांधी आए आवाज बनकर।
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रचनाकार -शेख जाफर खान