मजबूरी
होते हैं मजबूर
अपने ही गांव से
पलायन के लिए
अन्नदेवता
होती है बर्बाद
खेती
सूखा, ओला
तूफान से
रात दिन करते
मेहनत
गुजारते खेतों में
दिन रात
हैं हम सब
हितेशी इनके
करों मत पलायन
अपने गांव से
दर्द है बहुत
अपने अपनों
को छोड़ना
अपनी माटी
अपना देस
करता नहीं
कोई पलायन
अपने मन से
विछोह
होता नहीं सहन
दोस्त
दूर क्षितिज पर
डूबते सरज को
देख कर
मजबूरी ही
कर देती है
लाचार
नहीं हो पलायन
जिन्दगी में किसी की
बहुत सहा है
दर्द हिन्दुस्तानी ने
बंटवारे का पलायन
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल