मजदूर
कड़ी धूप में दिन भर पसीना बहाता है,
तब जाकर दो जून की रोटी कमाता है,
कमजोर, लाचार, गरीब और मजबूर है।
इसीलिए तो आज वो बंदा मज़दूर है।
बड़े-बड़े महलों की बुनियाद बनाता है,
अपनी मेहनत से महलों को सजाता है,
मगर शाही ऐशोआराम से कोसों दूर है।
इसीलिए तो आज वो बंदा मजदूर है।
कहते हैं कर्मशील है, राष्ट्र का निर्माता है,
मेहनत के मुकाबले बहुत कम कमाता है,
ये जरूर उसके पूर्वजन्म का ही कुसूर है।
इसीलिए तो आज वो बंदा मजदूर है।
उसके सीने में भी दिल है, प्यार है, दुलार है,
अभाव में भी भरापूरा उसका एक संसार है,
सबके करीब रह कर भी वो खुद से दूर है।
इसीलिए तो आज वो बंदा मजदूर है।
टूटी-फूटी झोपड़ियों में जिंदगी बिताता है,
गांव-घर से दूर रहकर चार पैसे जुटाता है,
महामारी के दौर में दरबदर होना दस्तूर है।
इसीलिए तो आज वो बंदा मजदूर है।
दीपक “दीप” श्रीवास्तव
1 मई 2021