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22 Sep 2016 · 1 min read

–मजदूर —

मैं मजदूर हूँ
वक्त का मारा
सताया हुआ
दुर्दिन्ता के दिन
देखे बडे करीब से

ये ऊँचे महल
जिनमें बचपन
बीता तुम्हारा
बनाये ईट पर ईट
रखकर मैने

ये जाडों के दिन
जब ठिठुरता सूरज
गरमी मारता पाला
सौर सपेती आती जूरी
मेंं होता काम पर

ये खुरपी छैनी है
इन्तजाम दो वक्त का
पापी पेट का सबाल
जीवन जीने का सबाल
अस्तित्व का सबाल

लोकतन्त्र है
जीवन का हक है
समतावाद नहीं है
मार्कस केवल पन्नों
इतिहास की धरोहर

जनता से है लोकतंत्र
जनता से है सब व्यवस्था
जनता के लिए सब कुछ
जनता के लिए ही हरदम
फिर क्यों नहीं समता ?

डॉ मधु त्रिवेदी

Language: Hindi
73 Likes · 519 Views
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