मजदूर का पलायन
वो चला है शहर से गाँव की ओर ,
हताश मन और टूटे सपने लिए ।
किनारे तो ना लगी जीवन -नैया ,
मझधार में रह गयी टूटी पतवार लिए ।
दो टूक कलेजे के साथ परिवार को थामे,
जा रहा है वो तपती सड़क पर नंगे पैर लिए।
रोजगार छिनते ही फिर कंगाली का डर ,
महानगर में कैसे जीवित रहे अभाव लिए ?
है तो सरकार की और से सब सुविधाएं ,
मगर जाने क्यों इनपर इसे भरोसा नहीं ,
रेल है बस है और रहने को धर्म शालाएँ भी ,
है भोजन की व्यवस्था पग पग पर , मगर
इसको दरकार नहीं।
समस्या बड़ी विकट खड़ी एक षड्यंत्र लिए।
इधर महामारी का प्रकोप ,और उधर अनुशासन पालन ,
कैसे रोके आखिर सरकार मजदूर का पलायन ?