मजदूर का दर्द
ये सुबह और शाम का अंतर,
मैं भूल गया हूँ राहों पर ।
भूख और थकान का अंतर,
मैं भूल गया हूँ चौराहों पर ।।
हे मेरे मालिक,
ये कैसा न्याय है मेरे साथ किया ।
मेरे वोट से तू शासक बना,
सात-समंदर वाले को गले लगा लिया ।
मुझे तो कोई शिक़ायत नहीं है,
तेरी बेदर्द, बेपरवाह हुक़ूमत से ।
गर बदन से जान भी निकल जायेगी,
ये दुनियां तुझे ही मेरा क़ातिल बनाएगी ।
थोड़ा सा रहम,
मुझ फ़क़ीर पर भी दिखा,
इस नाज़ुक उथले शरीर की मिट्टी को,
ले जाकर “आघात” के द्वारे से मिला ।