मजदूरों की किसी ने नहीं सुनीं
सारे कवियों ने कविताएं बुनी
पर मजदूरों की किसी ने नहीं सुनीं
यें राहतें ये पैकेज किस काम आएगें
मुझे नहीं लगता ये पैसै मजदूरों को मिल पाएंगें
दो महीनो से लगी हुई है लाखों करोड़ो की धुनी
पर मजदूरों की किसी ने नहीं सुनीं
रेल की पटरियों पर मजदूरों का खून था
उसे देख कर हर एक देशवासी के सिर पर जनून था
और पास में पडी थी रोटी एक खून से सनी
मजदूरों की किसी ने नहीं सुनी
रोज देखती हूं मजदूर कैसे रो रहे है
अपनी व्यथा कह कर देश के “विकास” का दामन धो रहे है
कैसे छोटे छोटे बच्चे सड़क़ो पर सोए हुए है
और देश की अन्यायपूरण व्यवस्था को ढ़ो रहे है
और दूसरी तरफ पालघर में मारे ग ए है ऋषि और मुनि
और इधर मजदूरों की किसी ने नहीं सुनी
अमीरों के बच्चों के लिए केक का इंतजाम हो गया
गरीब का बच्चा तड़प तड़प कर भूखा ही सो गया
कुछ बच्चे पैदल चलते चलते रास्ते में ही मर ग ए
आप के सारे पैकेज धरे के धरे रह ग ए
पता नहीं सरकार ने मजदूरों की मदद के लिए कौन सी राह है चुनी
देख लो तुम मजदूरों की किसी ने नहीं सुनीं
विदेशो में जाने वालों का भी इंतजाम हो गया
विदेशों से आने वालों का भी आगमन हो गया
पर देश के मजदूरों के लिए रेलगाड़ी बड़ी देर से चली
क्योंकि मजदूरों की किसी ने नहीं सुनी
कैसा समाज है ये
सभ्य हैं या सड़ा हुआ
अब तो कोई बुदिजीवी और लेखक मोमबती लेकर नहीं खड़ा हुआ
अब कोई चिंतन और मनन नहीं है
क्या ये मानवाधिकारों का हनन नहीं है
मजदूरों के लिए हर तरफ हाहाकार हो गया
पर कहीं कोई बात नहीं बनी
मजदूरों की किसी ने नहीं सुनी
मजदूरों की किसी ने नहीं सुनी।