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23 Jan 2019 · 1 min read

मगर क्यो

तबाह-सी मंज़र में फिर मंज़र क्यों
बदल गये हम तो पुराना शहर क्यों।

बेहोशी सही मैंने ओढ़ी थी तेरे नाम की चादर
खुले आसमां में जीते हैं अब,तो ये चादर क्यों।

खोने का ग़म सीने में पहले से छुपाये बैठे थे
गिरे थे कुछ अश्क, आखिर ये नम बसर क्यों।

अज़ीज़ के इश्क़ से जहर भला मर तो जाते
अब इश्क़ को हम मारेंगे जहन से जहर क्यों।

‘राव’ बदल तो गया नज़र से फिर ये असर क्यों
इश्तियाक़ क्यों ये ग़ज़ल क्यों जैसे यादें मगर क्यों।

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