मकान देख रखे है ज़माने वाले।
कभी तन्हाई में सुध ना लेता था कोई,
ये कहाँ से आ गए है हक़ जताने वाले।
रातें थी तन्हा दिल अकेले भी खुश था,
कुछ यार मिल गए है अब सताने वाले।
दिल हो गया है उस सजर की शाखों सा,
परिंदे बैठते ही नही है घर बनाने वाले।
इमारतों के पत्थर युहीं टुटा नहीं करते,
मिलें न जब तलक नीवें हिलाने वाले।
चाहत बरक़रार है बस तरीका बदल गया,
चाहकर देखते है देखकर चाहने वाले।
महफ़िलों में बने रिश्ते अक्सर दर्द ही देते है,
कुछ चंद ही मिलते है वादा निभाने वाले।
सम्हल कर चलना होगा ज़माने में दिखावा बहुत है,
सबसे पहले लाते है पानी आग लगाने वाले।
सौरभ .चाहो भी तो अकेले रह न पाओगे,
मकान देख रक्खे है तेरा सारे ज़माने वाले।