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10 Apr 2023 · 7 min read

*टैगोर काव्य गोष्ठी/ संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ* आज दिनांक 1

* संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ : दैनिक समीक्षा* दिनांक 10 अप्रैल 2023 सोमवार को पांचवा दिन था। प्रातः 10:00 से 11:00 तक रामचरितमानस बालकांड दोहा संख्या 102 से दोहा संख्या 139 तक
राम-अवतार का औचित्य, नारद-मोह
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मुख्य पाठ रवि प्रकाश एवं रसायन विज्ञान प्रवक्ता मुरारी लाल शर्मा द्वारा मिलकर किया गया ।
आज के पाठ की मुख्य उपलब्धि दोहा वर्ग संख्या 111 की यह चौपाई रही :-
मंगल भवन अमंगल हारी । द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी।।
बालकांड के अनुरूप इस चौपाई में भगवान राम के बाल-रूप की वंदना की गई है। इसका अर्थ है मंगल भवन अर्थात मंगल के धाम, अमंगल हारी अर्थात अमंगल को हरने वाले अजिर अर्थात ऑंगन, बिहारी अर्थात विहार करने वाले अथवा विचरण करने वाले।
अतः बालरूप भगवान राम का ध्यान करते हुए भगवान शंकर कहते हैं कि हे दशरथ के ऑंगन में बाल रूप में विचरण करने वाले प्रभु श्री राम ! आप सबका मंगल करने वाले तथा अमंगल को नष्ट करने वाले हैं। आप मुझ पर कृपा करें । ध्यान देने वाली बात यह है कि उपरोक्त चौपाई में अजिर शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ ऑंगन होता है। अन्य कोई शब्द का प्रयोग अर्थ को बालरूप के तारतम्य में नहीं ला पाएगा । शब्दों का सटीक प्रयोग तुलसी के रामचरितमानस की विशेषता है ।
आज के रामचरितमानस के पाठ में ही छह मुख वाले भगवान कार्तिकेय के जन्म का भी वर्णन आता है। भगवान कार्तिकेय के संबंध में चौपाई में लिखा हुआ है कि बड़े होने पर इन्होंने युद्ध में तारक नामक असुर को मारा था :-
तब जन्मेउ षटबदन कुमारा। तारक असुर समर जेहि मारा।।
(दोहा वर्ग संख्या 102)
दोहा संख्या 103 में भगवान शंकर के प्रति भगवान राम ने अपनी प्रीति वर्णित करके शिव और राम के भेद को मिटाने का अद्भुत कार्य किया है । ऐसे में शिव और राम के भक्त दो अलग-अलग वर्ग नहीं रह गए ।वह एकाकार हो जाते हैं। याज्ञवल्क्य मुनि ने भारद्वाज मुनि से कहा था :-
शिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुॅं न सोहाहीं।। बिनू छल विश्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू।।
दोहा वर्ग संख्या 103 में भगवान शिव के चरणों में निश्चल प्रेम ही रामभक्ति का एकमात्र लक्षण बताया गया है।
व्यक्तित्व विश्लेषण इस प्रकार से कर देना कि व्यक्ति का चित्र पाठक के सामने नेत्रों में उपस्थित हो जाए, यह तुलसी के काव्य की विशेषता है। भगवान शंकर का स्वरूप चित्रण इस दृष्टि से अत्यंत मोहक है। दोहा संख्या 105 में भगवान शंकर के गोरे शरीर, कमल के समान चरण, नखों की ज्योति, सॉंप और भस्म को लपेटे हुए मुख की शोभा को शरद के चंद्रमा के समान बताने वाला यह चित्रण भला तुलसी के अतिरिक्त और किसके कलम के बूते की बात है। दोहा संख्या 105 देखिए :-
कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रारंभ परिधन मुनिचीरा।। तरुण अरुण अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना।। भुजग भूति भूषण त्रिपुरारी। आनुन शरद चंद छबि हारी।।
दोहा संख्या 115 में तुलसी ने निर्गुण और सगुण में भेद को अमान्य कर दिया है। उनका कहना है कि जो निर्गुण, निराकार, अव्यक्त और अजन्मा परमात्मा है; वही भक्तों के प्रेमवश सगुण रूप में अवतार लेता है:-
सगुनहि अगुनहि नहि कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध वेदा ।।अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन खो होई।। (सोरठा संख्या 115)
एक बार पुनः तुलसी स्पष्ट कर देते हैं कि परमात्मा निराकार होता है । बिना हाथ, बिना पैर बिना कान, वह सारे कार्य करता है । बिना मुॅंह के ही सब रसों का आनंद लेता है और बिना वाणी के ही सुयोग्य वक्ता है :-
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ विधि नाना।। आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी (दोहा वर्ग संख्या 117)
तुलसी ने ऐसे सर्वव्यापी परमात्मा को ही दशरथ पुत्र राम के रूप में भक्तों के हित में अवतार लिया बताया है। रामचरितमानस में तुलसी लिखते हैं :-
जेहि इमि गावहिं वेद बुध, जाहि धरहिं मुनि ध्यान। सोइ दशरथ सुत भगत हित कौशलपति भगवान।। (दोहा संख्या 118)
दोहा संख्या 120 में तुलसी ईश्वर के अवतार के कारण पर प्रकाश डालते हैं। वह लिखते हैं :-
जब जब होइ धरम की हानि। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।। तब तब प्रभु धरि विविध शरीरा। हरहिं कृपा निधि सज्जन पीरा।।
अर्थात जब धर्म का पतन होता है, असुर और दुष्ट लोगों का अभिमान बढ़ने लगता है; तब प्रभु अनेक प्रकार से शरीर धारण करके सज्जन जनों की पीड़ा को समाप्त करते हैं। रामचरितमानस का यह संदेश गीता से बहुत कुछ मेल खाता है । गीता के चौथे अध्याय के सातवें और आठवें श्लोक में भगवान कृष्ण ने इसी बात को निम्न शब्दों में वर्णित किया है :-
घटता जब-जब धर्म है, बढ़ जाता है पाप।
धर्म हेतु मैं निज प्रकट, अर्जुन करता आप।।
सज्जन की रक्षा करूॅं, दुष्टों का संहार।
समय-समय पर जन्म का, मेरा धर्माधार।।
तात्पर्य यह है कि संसार में मनुष्य का आत्मविश्वास कभी भी विपरीत परिस्थितियों में भी डिगना नहीं चाहिए। परमात्मा अपनी सृष्टि को एक सीमा से अधिक विकृत होते हुए नहीं देख सकते।
दोहा संख्या 125 में तुलसी ने एक बड़ी गहरी सामाजिक चेतना से संबंधित बात कही है । प्रायः ऐसा होता है कि सज्जन लोग तो निष्काम भाव से कुछ कार्य करते हैं तथा उस कार्य में आत्मानंद का अनुभव करते हैं, लेकिन उनकी चेष्टा को जो सत्तालोभी वर्ग होता है, वह डरी हुई दृष्टि से देखता है। भांति-भांति के विघ्न और बाधाएं उस कार्य में उपस्थित करता है। उसका छुद्र सोच यह रहता है कि यह सज्जन व्यक्ति जो सत्कार्य कर रहा ,है उसके पीछे कहीं उस दुष्ट के पद को हड़पना तो नहीं है । जबकि परमात्मा की उपासना प्रक्रिया में ही एक ऐसा आनंद आता है, जो अनिर्वचनीय होता है। ऐसे में भला कोई ईश्वर उपासना के बदले में संसार के छुद्र सत्ता सुखों की कामना क्यों करने लगेगा ? इसी बात को तुलसी ने एक रूपक के माध्यम से दोहा संख्या 125 में लिखा है :-
सूख हाड़ लै भाग सठ, स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड़, तिमि सुरपतिहि न लाज।।
अर्थात कुत्ता जब सिंह को देखता है तो अपने मुंह में फॅंसी हुई सूखी हड्डी लेकर भागने लगता है क्योंकि वह समझता है कि सिंह उसकी हड्डी को छीन लेगा। ऐसे ही जब इंद्र ने नारद को तपस्या करते हुए देखा, तब उस मूर्ख को यह सोचते हुए तनिक भी लाज नहीं आई कि देवर्षि नारद उसके छुद्र राज्य को छीन लेंगे।
दोहा संख्या 127 में चौथे चरण में हरि इच्छा बलवान शब्दों का प्रयोग देखने में आया है। इसी की अगली चौपाई में तुलसी लिखते हैं:-
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई।।
अर्थात ईश्वर की इच्छा ही बलवान होती है। जो राम चाहते हैं, वही होता है और उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई कुछ नहीं कर सकता ।
परमात्मा की कृपा में जो रहस्य छुपा होता है, वह साधारण समझ में आने वाली बात नहीं है। आज की कथा में हमने बालकांड के उस प्रसंग को पढ़ा, जिसमें महामुनि नारद भी एक सुंदरी स्त्री के रूप से मोहित होकर अपने ईश्वर प्रेमी स्वरूप से विचलित हो गए थे । वह उस स्त्री से विवाह करने के लिए मचल उठे । यहॉं तक कि भगवान से सुंदर रूप उधार मांगने की जिद करने लगे, ताकि स्वयंवर में वह सुंदर स्त्री उनके गले में जय माल डाल दे। नारद ने भगवान से कहा कि तुम अपना रूप मुझे दे दो ताकि मैं उस सुंदर स्त्री को प्राप्त कर सकूॅं। भगवान ने इस पर नारद से जो कहा, वह एक पिता और शुभचिंतक के महान वचन सिद्ध हो गए ।
दोहा संख्या 132 में भगवान ने नारद से कहा:-
जेहि बिधि होइहि परम हित, नारद सुनहु तुम्हार। सोइ हम करब न आन कछु, वचन न मृषा हमार।।
आगे कहते हैं :-
कुपथ माग रुज व्याकुल रोगी। बैद न देई सुनहु मुनि जोगी।। (दोहा 132)
कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान से जब भक्त कुछ मांगता है और भगवान उसे वह वस्तु दे देते हैं तो इसमें भगवान की कृपा होती है। लेकिन मांगने पर भी कोई वस्तु भगवान अपने भक्तों को नहीं देते हैं, तब इसके पीछे भगवान की अनंत कृपा छुपी हुई होती है । भक्त भले ही भगवान को बुरा-भला कहने लगे और लाख बार कहता रहे लेकिन भगवान अपने भक्तों का कभी भी बुरा न चाहते हैं न होने देते हैं। उदाहरण के तौर पर रामचरितमानस में बताया गया है कि अगर कोई बीमार व्यक्ति डॉक्टर अथवा माता-पिता से रसगुल्ला आदि वस्तु अपनी बीमारी के दौरान मांग लेता है तो किसी हालत में भी माता-पिता अथवा चिकित्सक उसे वह वस्तु नहीं देंगे। भले ही रोगी कितना भी बुरा-भला कहता रहे। यह अतिशय प्रेम के कारण ही संभव है कि माता-पिता और वैद्य बुराई मोल लेकर भी अपने भक्तों के हित की रक्षा करते हैं। (दोहा संख्या 132)
भगवान के धरती पर जन्म लेने के अनेक कारण होते हैं। उनमें से एक कारण वह शाप था जो नारद ने शिव जी के गणों को दिया । इसमें कहा गया था कि तुम राक्षस हो जाओगे, सारे विश्व को जीत कर अत्याचार करोगे और तब भगवान विष्णु मनुष्य का शरीर धारण करके तुम्हें मारेंगे।
तुलसी लिखते हैं:-
एक कलप यहि हेतु प्रभु, लीन्ह मनुज अवतार (दोहा संख्या 139)
तुलसी लिखते हैं:-
हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहि सुनहि बहु बिधि सब संता।। रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहि न गाए।। (दोहा139)
राम का सुंदर चरित्र तो करोड़ों कल्पों में भी गाया नहीं जा सकता। यह अनंत कथा है । संत इसे कहते हैं और सुनते हैं।
हमारा सौभाग्य कि हमें पढ़ने का शुभ अवसर मिल रहा है।
—————————————-
समीक्षक : रवि प्रकाश(प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451

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