मंझधार
मंझधार
समाज और परिवार की मंझधार में झूलता रहता है इंसान
कभी परिवार के लिए समाज से
तो कभी समाज के लिए परिवार से लड़ता रहता है इंसान ।
गरीब हो या अमीर
कोई नहीं बच पाया इस मंझधार से
कभी डूब जाता है
तो कभी पार कर जाता है इंसान ।
कभी परिवार परीक्षा लेता है
कभी समाज परीक्षा लेता है
परीक्षा देता रहता है इंसान
बस परीक्षा देता रहता है इंसान ।
इस मंझधार के तूफान से तो भगवान भी नहीं बच पाया है
कभी कर्म के नाम पर
तो कभी धर्म के नाम पर
ईश्वर को भी बांट लेता है इंसान ।
उचित और अनुचित में अंतर भूल जाता है
क्यूंकि परिवार से हारा तो अकेला
और समाज से हारा तो
जीवन हार जाता है इंसान ।
कभी परिवार की ताकत बन जाता है
तो कभी ज़िम्मेदारियों के आगे लाचार हो जाता है
खाकर ठोकरे हालातों की कभी बन जाता है हैवान
तो कभी निखर कर आता है एक इंसान ।
मानो ये कुदरत का दस्तूर सा है
ना सीता राम (ईश्वर) बचे थे
ना बच पाया है
आज का इंसान ।
हर एक घर में
जन्म लेता है एक रावण और एक राम
कभी रामायण
तो कभी महाभारत रच जाता है इंसान ।
रुपाली भारद्वाज