मंजिल
बोझिल नजरों से ओझिल रस्ता
देख रहे मंजिल का अपने
जेहन में सुलगते विचार अनेकों
संग में शुरू के सुलगते सपने
भ्रम है, के भ्रम है मुझको
साथ न खुद की परछाई का
अब तक तो अपने साथ खड़ा हूँ
पर आगे रस्ता है तन्हाई का
जलेगी जिंदादिली की ज्वाला
क्या किस्मत की चिंगारी से
क्योंकि किस्मत को परहेज है मुझसे
और मेरी हर बारी से
पाने की उम्मीद कहाँ है?
चलो बता दो भाग्य मुझे
जीवन में पीड़ा ही तो है
घाव मिले हैं असाध्य मुझे
मन्नत के धागे भी अक्सर
विधाता तक न पहुंचते हैं
पुराने घाव भी वक्त शिला से
रह – रह कर यूँही कुरदते हैं
मेरी मंजिल, मेरा रस्ता
क्या कुछ भी मेरे हाथ में हैं?
सारी शक्ति, सारी इच्छा
सबकुछ मेरे भोलेनाथ में हैं
शायद… उनकी मर्जी से
मेरी भी अर्जी लग जाए
मैं निरद्वन्द चलूँ रस्ता निज
बाधा दूर चली जाए
सुलगते विचारों का यह विचार
काश के सच का सत्कार करे
भोलेनाथ मेरी ओर तकें
और कृपा अपरम्पार करें
-सिद्धार्थ गोरखपुरी