मंजिल की तलाश
मैं एक हूं मुसाफिर
चल दिया मंजिल की
तलाश में पंथ पर
न पथ का मालूम हमें
न कोई ठौर ठिकाना
बस चलते जा रहा…
एक एक पग बढ़ाएं
अपने गंतव्य की ओर
पता नहीं यह मंजिल
कब जाकर मिलेगी हमें ?
कभी न कभी मिलेगी !
यही आस में जा रहा हूं ।
चलते चलते इन राहों पर
पग हमारे हो गए अकाट्य
सतत ही चलते जा रहा हूं
एक अह: दिवा मिलेगी हमें
इन इख़्तियार का प्रतिफल
इसी अवलंब में जा रहा हूं
ईश्वर भी कैसा कैसा हमसे
ले रहा इम्तिहान बार- बार
इस मुसाफिर से ईश्वर भी…
चित्त करता मर जाने को
फिर भी मंजिल तलाश में
चल रहा हूं , ए- पग बढ़ाएं।
अमरेश कुमार वर्मा
जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार