” मंजिल का पता ना दो “
मुझे डूबने दो तुम इस तन्हाई के सागर में
नाव का सहारा ना दो, ना ही कोई किनारा दो…।
गैर हो चुकी है राहें सारी,
मुझे तुम अब किसी भी मंजिल का पता ना दो…।।
चीखने लगी है अब तो खामोशी भी मेरी
तुम अब कोई नया इल्जाम ना दो…।
मौहब्बत तो रूह से हुई है तुम्हारी,
तुम यूं मेरे जिस्म पर दाग ना दो…।।
आँखों की कोर पर ख्वाब है सजाया
तुम इसे रूठने ना दो…।
इंतज़ार की सीमाएं भी कर रही है
बिखरने की साजिशें, तुम इन्हें टूटने ना दो…।।
दिल लगाने का कोई मौसम होता नही
तुम इस दिल के पंछी को उड़ने दो…।
खुद-ब-खुद गिर कर सम्भल जाएगा
पतझड़ की मार इसे सहने दो…।।
आँसुओं की बरसात को भला कैसे रोकूं मैं,
ये तो तुम्हारी यादें है इन्हें आँखों से बहनें दो…।
गैर हो चुकी है राहें सारी,
मुझे तुम अब किसी भी मंजिल का पता ना दो…।।
लेखिका- आरती सिरसाट
बुरहानपुर मध्यप्रदेश
मौलिक एवं स्वरचित रचना