मंजिल एक है
तुम्हें मेरी शख्सियत बड़ी मायूस नजर आती है,
कोई नहीं जो सच है वही नजर आती है..!!
मैं खोया रहता हूँ अपने ही बदन में,
और मुझे दुनिया बड़ी बेबकूफ नजर आती है.।।
रास्ता एक है मंजिल सामने है,
सड़कों पर भागती जिंदगी मुझे पागल नजर आती है.।।
हर शाम लौटते हैं परिंदे पेट भरकर ही,
तुम्हारे भरे थैलों में मुझे खुदगर्जी नजर आती है.।।
क्यों नहीं छोड़ देते हर वक्त का रोना धोना,
जिंदगी आसान है तुम्हें गणित में क्यों उलझी नजर आती है.।।
ये जो तुम हँस रहे हो, वो हँसी भी तुम्हारी नहीं,
ये जो तुम रो रहे हो, वो आँसू भी तुम्हारे नहीं,
मुझे तुम्हारे हर भाव पर अदाकारी ही नजर आती है..।
तुम्हें मेरी शख्सियत मायूस नजर आती है….
प्रशांत सोलंकी,
नई दिल्ली- 07