मंज़िल
वो मंजिल नई नही थी।
बस हौंसले की कमी थी ।
थे काँटे बहुत राह में ,
हर कदम तले चुभन बड़ी थी ।
सफ़र की मुश्किल घड़ी थी ।
बस एक उलझन बड़ी थी ।
धरता क़दम सम्हल कर पर ,
क़दम पड़ते सही नही थे ।
रास्ते थे खुशमुना ,छाँव भी घनी थी ।
पर नियत हर छाँव की भली नही थी ।
है राह बाँकी बहुत अभी बहुत ।
मंज़िल अभी मिली भी नही थी ।
चलता है “विवेक”बस चलता ही है ।
क्योकि मंज़िल कोई नई नही थी ।
….. विवेक दुबे ©…….
2/9/17