“मंज़र बर्बादी का”
न नई बात है, न बड़ी बात है,
मैं नहीं कोई और सही क्यों यही बात है?
असर तो है हद से परे, कहते हो, बेअसर
दिख रहा है साफ़ – साफ , कैसी बात हैं।
“सितमग़र बो देते हैं बीज खुद का अक्सर”,
तुम्हें देख के लगता है, ये सही बात है।
ऐसे तो न थे तुम, बदल ही गए हो,
असर है ये उसका या और कोई बात है?
ये फरेब, ये जालसाजियाँ,आज़माओ किसी और पे,
हैं ‘ओश’ वो भी जानती जो अनकही बात है।
ख़त्म भी करो अब ये ज़ख्मों का सिलसिला,
दर्द तुम्हारा हो या मेरा हो, एक ही बात है।
न बदल सकते हो तुम न बदल सकती हूं मैं,
बितनी थी बीत गई, ये सब बीती बात है।
दूर है अब भी मंज़र बर्बादी का,
लौट आओ ज़िंदगी में तो खुशी की बात है।
लौट आओ ज़िंदगी में तो खुशी की बात है।।
ओसमणी साहू ‘ओश’ रायपुर (छत्तीसगढ़)