भ्रूण व्यथा
भ्रूण व्यथा
मैं जब कोख में थी
बहुत डरी थी,सहमी थी
भयाक्रांत थी परन्तु शान्त थी।
उसदिन मैं बहुत डर गयी थी
जब मेरी माँ को मेरी सगी बुआ
डांट-डपट कर डॉक्टर के पास ले गयी थी
कोख का अल्ट्रासाउंड करवाया गया
मैं नर थी या मादा इसका पता गहराई से लगवाया गया।
कोख में मुझे देख डॉक्टर खामोश दादी का उड़ गया होश
माँ हिम्मत बटोरकर बोली- डॉक्टर साहब नर है या मादा, बता दीजिए
कुछ नहीं पड़ेगा फर्क मुझपर, जरा मेरे पतिदेव को समझा दीजिए।
डाक्टर बोला
है तो बेटी ही इसमें समझाना-बुझाना क्या
हर क्षेत्र में परचम लहरा रही है लड़कियां
फिर बेटा और बेटी से हर्ष क्या विषाद क्या ?
जैसे सुनी बुआ कोख में मैं पल रही हूँ
बुआ के दिल में आग लग गयी
भुनभुनाती हुई कहीं अन्यत्र चल गयी।
पिता कुछ नहीं बोले लेकिन आपकी आँख से
निकल रहे थे क्रोध के गोले
माँ तो मुझे कोख में संजोये घर आयी
मुझे जनने की कसम खायी
और उसी दिन से मुझे हर पल लग रहा था
कोई मेरे पास आ रहा है, मुझे देख गुर्रा रहा है
मेरा गला दबा रहा है।
गर्भ में ही मैं सोचने लगी
सृष्टि को चलाती है नारी, फिरभी अबला क्यों कहलाती है नारी?
कोख से जब बाहर आती है
दादी, चाची, भाभी, मौसी से तिरस्कार पाती है
लड़की का नाम सुनते ही नाक-भौं सिकुराती है।
मन रखने के लिए लोग बोलते हैं, लक्ष्मी हुई है
जच्चा से अलग होते ही बोलते हैं उसकी नसीब फुट गयी है
फलाने को लड़की हुई है ।
मगर भूल जाते हैं लोग मैं लक्ष्मी,सरस्वती, काली हूँ
शिवशंकर को अर्धनारीश्वर बनाने वाली हूँ
दो कुलो की संतति बढ़ाने वाली हूँ|
जिस दिन सभी लोग यह जान जायेंगे
मेरे आने पर लोग उत्सव मनायेंगे।