“भोर’
“भोर”
(१)दिश प्राची सोहे गगन,सूरज तिलक लगाय।
तज निद्रा जागे सकल,आलस दूर भगाय।।
(२)दिनकर स्वर्णिम आभ ले, सरस नेह छितराय।
लाली चूनर ओढ़ के, ऊषा मन हर्षाय।।
(३)पर्वत उर राजत मणी,निर्झर मुक्तक हार।
पाँव पखारे गंगजल, निर्मल शीतल धार।।
(४)शंखनाद घंटे बजें,शोभित कंठ अज़ान।
संगम तट भस्मी सजा,संत धरें प्रभु ध्यान।।
(५)कोयल डाली कूकती, हलधर खेत सुहाय।
वन-उपवन पुष्पित धरा,सतरंगी मुस्काय।।
(६)कुमकुम बिंदिया राजति,नारी रूप लुभाय।
पनघट जा गागर भरी, कलशी शीश झुकाय।।
(७)पगडंडी चंदन सजे, अलसी खेत लजाय।
पवन ठिठोली कर रही, भोर प्रभाती गाय।।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
संपादिका-साहित्य धरोहर
महमूरगंज, वाराणसी (मो.-9839664017)