” भेड़ चाल “
हे भाया ! तुने ही ये कहर है ढाया ,
पाखंड से अंधेर नगरी बनाया ।
कभी नहीं अपना विवेक लगाया ,
हमेशा भेड़ चाल को ही अपनाया ।
हर बार तु एक नयी मूर्ति लाया ,
शिशु रूप में उसका स्थापना कराया ।
फिर खुद ही उसे मृत्यु के हाथ दे आया ,
खुद ही उसे विसर्जित कर आया ।
जननी है उत्पन्न की काया ,
जीव उत्पन्न हो या हो कोई माया ।
उसमें तो सिर्फ सृजन है समाया ,
स्त्री हो या पुरुष हो भाया ,
ये वरदान हम सब में समाया ।
हर बार नए साल को सिर्फ जश्न मनाया ,
पर तु कुछ नया ना कर पाया ।
भुला कर पुराने गीले – शिकवे सभी भाया ,
क्या सच में तु नयी शुरूआत कर पाया ?
अपने अंदर नया प्रेम-भाव ना जगा पाया ।
मौत के बदले मौत दे आया ,
वाह ! तुने क्या इतिहास रचाया ।
आरोपी की सजा कम कराया ,
फांसी दिला उसे मुक्ति दिलाया ।
क्या फर्क तुझमें और उसमें रह गया भाया ?
अपनी सोच दूसरों पर थोप आया ,
नयी सोच का विरोध कर आया ,
थोड़ी तो उसकी भी सुन लेता भाया ।
क्या सच में तुने अपना धर्म निभाया ?
कई पीढ़ियां बर्बाद कर आया ,
भावी पीढ़ी को तुने क्या सिखाया ?
प्रेम लोक था उसने बनाया ,
भेद – भाव का खंजर तु ही लाया ।
प्रकृति ने भी ना देखा अपना – पराया ,
कलयुग का भेड़ चाल तुने ही अपनाया ।
? धन्यवाद ?