भूल चुके हैं
शीर्षक – भूल चुके हैं
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एकता और संस्कृति भूल चुके हैं।
एक दूसरे से मानवता भूल चुके हैं।
संस्कार और परम्पराओं को भूल चुके है।
आशीर्वाद और बढ़ो का सम्मान भूल चुके हैं।
रिश्ते नाते सच बोलना भूल चुके हैं।
ईश्वर मन भावों को भूल चुके हैं।
सच हम भाई-बहन रिश्ते भूल चुके हैं।
शब्दों के साथ सम्मान हम भूल चुके हैं।
हां सच हमारी कविता हम भूल चुके हैं।
धर्म ग्रंथ वेदों को हम भूल चुके हैं।
आओ हम सोचे हम क्या भूल चुके हैं।
जीवन के सच और सहयोग भूल चुके हैं।
माता-पिता का जन्म देना हम भूल चुके हैं।
सच और सोच हम सभी भूल चुके हैं।
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नीरज अग्रवाल चंदौसी उ.प्र