*भूमिका*
भूमिका
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल) के तत्वावधान में हमने 5 अप्रैल 2023 से 15 मई 2023 तक संपूर्ण रामचरितमानस के पाठ का सार्वजनिक आयोजन रखा ।जमीन पर पालथी मारकर हम बैठ जाते थे । सामने रामचरितमानस एक चौकी पर विराजमान रहती थी । माइक लगा रहता था । ऊॅंची आवाज में मानस की चौपाइयों का सस्वर पाठ प्रतिदिन एक घंटा चला। रविवार को अवकाश रहता था। अक्षय तृतीया वाले दिन हमारे घर पर पुत्रवधू डॉक्टर हर्षिता पूठिया ने हवन का आयोजन रखा था। इसलिए उस दिन भी पाठ से अवकाश रहा । 4 मई को मतदान के कारण अवकाश रहा। इस तरह कुल तैंतीस कार्य-दिवसों में रामचरितमानस का पाठ पूर्ण हुआ ।
हमारी इच्छा रामचरितमानस को पूर्ण रूप से पढ़ते हुए उसे समझने की थी । इसके लिए पाठ सबसे अच्छा तरीका रहा । वास्तव में तो इसका श्रेय मेरी धर्मपत्नी श्रीमती मंजुल रानी को जाता है, जिनके मन में ईश्वर की प्रेरणा से रामचरितमानस के पाठ की इच्छा उत्पन्न हुई और बहुत सुंदर रीति से मुख्य रूप से उनकी सहभागिता से यह कार्य पूरा हो सका । सुबह एक घंटा हम रामचरितमानस का पाठ करते थे और उसके बाद घर पर आकर मानस के जो अंश पढ़े गए, उनकी व्याख्या दैनिक समीक्षा के रूप में लिखकर सोशल मीडिया पर प्रकाशित कर देते थे । यह एक प्रकार से पाठशाला में पढ़े गए पाठ को दोहराने जैसा था । उसको स्मरण करने की विधि थी अथवा यों कहिए कि उसके मर्म को समझने और शब्दों के भीतर तक प्रवेश करके उसके संदर्भ को सही-सही समझने की चेष्टा थी।
रामकथा का प्रवाह ही इतना सुंदर है कि भला कौन मंत्रमुग्ध न हो जाएगा ! इस कथा में कोई दिन ऐसा नहीं गया, जब हमें कथा के प्रवाह में कतिपय सद्विचारों का प्रसाद प्राप्त न हुआ हो । चाहे दशरथ जी द्वारा वृद्धावस्था के चिन्ह-स्वरूप अपने सफेद बालों को देखकर सत्ता से संन्यास लेने का निर्णय हो या राम द्वारा पिता की आज्ञा मानकर वन को जाने का प्रसन्नता पूर्वक लिया गया निर्णय हो । सब में ऊॅंचे आदर्शों की गंध हमें मिलती है। भरत, लक्ष्मण और सीता कोई साधारण पात्र नहीं हैं। वे रामकथा के परिदृश्य को अपूर्व शोभा प्रदान करने वाले अभिन्न अंग हैं।
बिना हनुमान जी के क्या रामकथा को वह गरिमा प्राप्त हो सकती थी, जो उसे मिली । समुद्र को पार करके हनुमान जी लंका चले गए और सीता जी को रामजी की अंगूठी देकर उनकी चूड़ामणि निशानी के तौर पर भगवान राम को सौंप देना, यह सब ईश्वरीय घटनाक्रम का ही एक अंग कहा जा सकता है।
मनुष्य के रूप में जब भगवान राम अवतरित हुए, तब उनकी सारी लीलाएं मनुष्य के रूप से मेल खाती हुई चलती चली गईं। तभी तो अनेक बार उनको भी भ्रम हो गया, जिनको माया व्याप्त नहीं होती थी। यह सब प्रकृति का घटना-चक्र था। स्वयं सीता जी माया के मृग से मोहित हो रही थीं। यह भी लीलाधारी की लीला ही थी । अगर मायावी राक्षसों की माया से जूझने के लिए मायापति भगवान राम के पास पर्याप्त अस्त्र-शस्त्र नहीं होते तो युद्ध कैसे जीता जाता ? लेकिन यह भी सच है कि अगर रामकथा में सहज-सरल धरती के घटना चक्रों के उतार-चढ़ाव नहीं होते तो सर्वसाधारण को उसका पाठ करके नैसर्गिक अनंत प्रेरणा कैसे मिलती ? यही तो रामकथा का मुख्य आकर्षण बिंदु है कि लक्ष्मण जी मूर्छित होते हैं और चटपट हनुमान जी लंका से वैद्य को बुलाते हैं । फिर उसके बाद रातों-रात संजीवनी बूटी लेने जाते हैं और पूरा पहाड़ उखाड़ कर रात में ही लेकर आ जाते हैं और लक्ष्मण जी के प्राण बच जाते हैं। यह सब चमत्कारी घटनाएं होते हुए भी मनुष्य जाति के लिए बुद्धिमत्ता के साथ काम करने तथा बल और बुद्धि के उचित सामंजस्य को जीवन में आत्मसात करने के लिए प्रेरणा देने के बिंदु बन जाते हैं ।
सबसे ज्यादा तो तुलसीदास जी के उन प्रज्ञा-चक्षुओं को प्रणाम करना होगा, जिन्होंने कागभुशुंडी जी के दर्शन कर लिए। न जाने कितने लाखों वर्षों से सुमेरु पर्वत के उत्तर दिशा में नीले पर्वत पर वट वृक्ष के नीचे कागभुशुंडी जी रामकथा कह रहे होंगे, लेकिन उन्हें देखने का सौभाग्य तो केवल तुलसीदास जी को ही मिला। अन्यथा भला किसने उन्हें रामकथा कहते हुए देखा होगा ? रामकथा के वक्ता का जो आदर्श काग भुसुंडि जी के माध्यम से तुलसीदास ने प्रस्तुत किया, वह अप्रतिम है । ऐसा वक्ता जो अपने मुख से रामकथा कह रहा है और केवल अपने अंतर्मन को सुनाने के लिए कह रहा है सिवाय काग भुसुंडि जी के इतिहास में भला कौन होगा ? काला रंग, कौवे का शरीर और कर्कश आवाज -क्या यही रामकथा के वक्ता का आदर्श तुलसीदास जी को ढूंढने पर मिला ? लेकिन नहीं, वक्ता की वाणी का सौंदर्य उसके कोकिल-कंठ होने से नहीं होता। उसके शरीर के रूप और सुंदरता से भी नहीं होता। उसके वाह्य आडंबर से उसकी वक्तृता का मूल्यांकन नहीं हो सकता। रामकथा के वक्ता के लिए सांसारिक प्रलोभनों से मुक्त रहते हुए केवल “स्वांत: सुखाय” ही रामकथा कहना आदर्श होना चाहिए । और यही तो काग भुसुंडि जी महाराज का और स्वयं तुलसीदास जी का भी आदर्श रहा है ।
केवल रामकथा के वक्ता का ही नहीं, रामकथा के श्रोता के लिए भी एक आदर्श तुलसीदास जी स्थापित कर देते हैं। भगवान शंकर श्रोता के रूप में काग भुसुंडि जी महाराज की कथा सुनने के लिए नीले पर्वत पर जाते हैं। लेकिन श्रोताओं की भीड़ में अपने को छुपा लेते हैं । अपनी अलग पहचान उजागर नहीं होने देते । जो हंस तालाब में काग भुसुंडि जी की कथा सुन रहे हैं, भगवान शंकर भी उन हंस जैसे रूप में श्रोताओं में बैठ जाते हैं और कथा सुनकर आ जाते हैं । किसी को कानोकान खबर नहीं हो पाती कि भगवान शंकर रामकथा सुनने आए हैं । ऐसी सादगी तथा निरहंकारिता के साथ अपनी पहचान को सर्वसाधारण श्रोताओं के बीच में विलीन कर देना, यही तो रामकथा के सच्चे श्रोता का लक्षण होना चाहिए। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के अंतिम अध्याय में इसी बात को अपने प्रज्ञा-चक्षुओं से देखा और लिखा।
प्रतिदिन संपूर्ण रामचरितमानस के पाठ की जो समीक्षा हमने लिखी, उसे पाठकों ने सराहा और प्रोत्साहित किया। इसलिए यह विचार बना कि क्यों न इसे पुस्तक रूप में प्रकाशित करा दिया जाए ताकि रामचरितमानस के संबंध में जो साहित्यिक-कार्य अब तक हुए हैं, उसी में एक भेंट के रूप में हमारा कार्य भी सम्मिलित हो जाए।
आशा है यह लेख पाठकों को रामकथा की रसमयता से परिचित कराने में जहॉं एक ओर लाभदायक रहेंगे, वहीं दूसरी ओर विद्वान हमारे इस परिश्रम को यदि स्वीकार करेंगे तो हमें और भी अच्छा लगेगा। चालीस दिन तक समय-समय पर जिन सहयात्रियों ने रामचरितमानस के पाठ में हमारा मनोबल बढ़ाया, उनके प्रति धन्यवाद अर्पित करना भी हम अपना कर्तव्य मानते हैं। इन्हीं शब्दों के साथ संपूर्ण रामचरितमानस के पाठ के चालीस दिवसीय आयोजन की मधुर स्मृतियॉं आपके सम्मुख हैं।
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रवि प्रकाश पुत्र श्री राम प्रकाश सर्राफ ,बाजार सर्राफा, निकट मिस्टन गंज, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
ईमेल raviprakashsarraf@gmail.com
दिनांक 15 मई 2023 सोमवार