भीग रहे थे हम अंदर
घुमड़ रहे थे मेघ मन के,
बहता था भावों का समंदर।
बाहर बारिश हो रही थी,
भीग रहे थे हम अंदर।
खेल रहा था मौसम तब,
अजब अनौखे खेल।
बादलों की बन गई थी,
लंबी-सी इक रेल।
चम-चम-चम-चम बिजली से तब,
चमक रहा था नीला अंबर।
बाहर बारिश हो रही थी,
भीग रहे थे हम अंदर।।
इंद्रधनुष के रंग बिखरे थे,
घर के कोने-कोने में।
जी करता था पागल मन का,
कुछ से कुछ हो जाने में।
सपनों की मालाओं का तब,
लगा हुआ था आफर बंपर।
बाहर बारिश हो रही थी,
भीग रहे थे हम अंदर।।
नयनों ही नयनों में,
हो रही थी बातें।
लुटा रही थी कुदरत भी,
सावन की सौगातें।
किया होगा किसी ऋषि ने तप,
जो प्रसन्न हुए पुरंदर।
बाहर बारिश हो रही थी,
भीग रहे थे हम अंदर।।