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1 Jun 2021 · 1 min read

भीग रहा है मनोजलज !

इन्द्र धनुष से रंग झरे , रे बादल के बारात में !
भीग रहा है मनोजलज ! हरख हरख बरसात में !

हरित मनोहर मोहक तंतु , जाल हिलाता सावन,
मीठा मत्त मधुर सा रस, रिसता सरस लुभावन,
हंस- हंसिनी पीते मधु को , गीले गुलाब -पात में !
भीग रहा है मनोजलज ! हरख हरख बरसात में !

तेरी मीठी बातें चखकर, अधरों को लगती है प्यास !
जैसे कोई खाकर मीठा, जल पीने की करता आस।
आर्द्र हँसी चू जाती है, प्यासे कमलों के गात में !
भीग रहा है मनो जलज ! हरख हरख बरसात में !

तेरी सतरंगी चुनरी से, रंग जाती है फिजा़ रंगीली,
मदिरालय जाता नहीं पर, देख तेरी आँखें नशीली,
बार -बार लेता हूँ थाम, प्याला अपने हाथ में !
भीग रहा है मनोजलज ! हरख हरख बरसात में !

जुल्फ घनी सी गोरे मुख पर , उड़के हवा से हिलती,
गंगा में ज्यों श्यामल जमुना , लहर लहर के मिलती।
नहा लिया संगम में जैसे , लहरों के आघात में !
भीग रहा है मनो जलज ! हरख हरख बरसात में !

चाँद को लखती सजती है, शाम सघन-सिन्दूरी,
दीप शिखा से पतंग की, खत्म हुई चिर दूरी।
जोह रही भँवरे की बाट, रातरानी खिल रात में !
भीग रहा है मनो जलज ! हरख हरख बरसात में !

ऐसा लगता है मेरे संग, तेरे इंतजार में शामिल,
वृक्ष लता है, पर्वत नदियाँ, मृदु झील का साहिल !
बैठा चातक चन्द्र विमुख, चितवत ‘चन्दन’ साथ में,
भीग रहा है मनो जलज ! हरख हरख बरसात में !

रचनाकार – चन्दन कुमार ‘मानवधर्मी’
(आजमगढ़, उ प्र। )

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