भिड़ी की तरकारी
रविवार फुरसत का दिन था,
वो बोले मुस्काकर।
तुम्हें खिलाऊंगा मैं खाना,
किचन में आज बना कर।
मैंने पूछा प्यारे हब्बी,
किचन का क्या है ज्ञान?
जिसका काम उसी को भाये,
न बनिये नादान।
बोले बुद्धू न समझो मुझे,
खूब टैलेंट है मुझमें।
उतना तो चुटकी में कर दूं,
जितना ज्ञान है तुझमें।
सब्जी काट के धोना होता,
मां से मैंने जाना।
बाकी में क्या दिक्कत होती
झट बन जाये खाना।
सारे तिकड़म अपना कर के
जतन लगाकर सारी।
लगे बनाने साजन मेरे
भिड़ी की तरकारी।
बिना प्रशिक्षण घुसे रसोई,
पाक से थे अनजाने।
रोका टोकी न उन्हें भाये,
मूड के थे मनमाने।
भिंडी लिया विधी से काटा,
छोटे टुकड़े कर के।
धोने लगे थाल में रखकर,
पानी से भर भर के।
पूरी भिड़ी चिप चिप हो गयी,
पानी हुआ लबाब।
धोते जाएं धोते जाएं,
डाल डाल कर आब।
तीस दफा भिड़ी को धोया,
तबौ न गया लसाढ़।
जितना धोए बढ़ता जाए,
पड़ीं मुसीबत गाढ़।
बोल्ड हो गया बालम मोरा
मैच हुआ न पूरा।
भिड़ी तरकारी खाने का,
सपना रहा अधूरा।
तड़का तेल कड़ाही जल गई,
किचन धुंआ हुआ पूरा।
खिसियाया अपनी करनी पर,
खुद ही खुद को घूरा।
सकल माजरा मैं जब देखा,
निकल गयी मेरी खीस।
ऑन लाइन भोजन मंगवाया,
खर्चे नौ सौ बीस।
पति मुझे मैसेज दिखलायें,
खोल के अपना फोन।
नौ सौ बीस हो गए डेविड,
खर्च किया है कौन।
भांप गए सब साजन मेरे,
देख मेरी मुस्कान।
नौ सौ बीस खर्च हुए कैसे,
पल भर में गए जान।
सन्डे भारी पड़ गया,
अक्ल हो गयी ठंडी।
खाना बनना दूर रहा
वहीँ बन न पाई भिंडी।
पूजा सृजन
लखनऊ