भिक्षुक एक श्राप
न जाने
क्यों लोग उससे इतना कतराते है
अपना झूठा भी श्वान को
दे भिक्षुक को भगाते है
यहां श्वानों को मिलता दूध
भिक्षुक पतल ले छटपताते है
भिक्षुक कोन बनना
चाहता है
वो उससे बेहतर कुछ
करना चाहता है
पर हाय
निर्धनता के आगे
वे खुद को बेवस
पाते है
मानवता बस मन
में रह गया
चंचलता तल के
नीचे दब गया
सारा जग
पैसे के पीछे पड़ गया
भिक्षुक को देने
को कोड़ी नहीं
पर बचा भोजन रोज
सड़क पर फेक आते हैं
वो भिक्षुक जो
कलेजा लेकर आता है
झूठी पतल बचा – कूचा
खुशी खुशी खाकर चला जाता है
पर न जाने क्यों
भिक्षुक से दूरी बनाते है
मानो उनका संसार लूट ले
ऐसे मानव घबराते है