भावान्तरके भाव में उलझा किसान है
मुसल्सल ग़ज़ल – (बह्र – मज़ारे मुसम्मन मक्फूफ़ मक्फूफ़ महज़ूफ)
माता बना के तुझको बनाया महान है।
धरती माँ देख कितना परेशां किसान है।।
सूखे से जूझता कभी ओलों की मार से।
फिर मंडियों में जाके दिया इम्तिहान है।।
जब सींचना हो फ़स्ल तो होती कटोतियां।
वैसे तो रोशनी से ये जगमग ज़हान है।।
अब नांव उसकी पार भला कैसे ये लगे।
भावांतर के भाव में उलझा किसान है।।
कैसा निज़ाम है जो कभी हक़ की बात की।
फिर लाठी गोलियों से किया ये निदान है।।
खेतों में कारखानें हैं फ़स्लों की अब जगह।
खेतों को छीना है तो सड़क पर किसान है।।
चौखट से बेटीयों को बिदा भी न कर सके।
अब होता उनका मुख्यमंत्री कन्या दान है।।
कर्जों के बोझ से जो कदम लड़खड़ा गये।
फाँसी पे झूल पीता जहर देता ज़ान है।।
जिसके “अनीश” अन्न से पलता है देश ही।
रोटी को तरसे उसका ही अब खानदान है।।
——-अनीश शाह