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31 Oct 2020 · 4 min read

भारतीय राजनीति में प्रतीकों का दंगल

भारत में राजनीति जनता की सोच में वर्तमान,भविष्य से ज्यादा इतिहास को समेटना चाहती है। जो कि बुरा नही अच्छा है कि राजनीति भारतीय जनता को उसके जमीन, उसकी संकृति और पूर्वजों की कड़ी से जोड़े रखना चाहती है।
किन्तु समस्या वहाँ खड़ी होती है जब राजनीति इतिहास के केवल उन्हीं प्रसंगों को उठाती है जिससे एकता से ज्यादा राजनीति को बल मिलता है और महापुरुषों के सामाजिक आदर्श और सामाजिक चिंतन से ज्यादा उनके राजनितिक प्रतीकों को बल मिलता है। भारतीय राजनीति में इसे आसानी से देखा और समझा भी जा सकता है। यह बिलकुल उसी प्रकार है जैसे वेदों से केवल वर्ण व्यवस्था को निकाल कर असम्भावी बना दिया पुराणों से निकाल कर सती प्रथा जैसे अन्य कर्मकांडो को असम्भावी कर दिया इसी प्रकार इस्लामिक ग्रन्थों से जिहाद को अल्लहा से मिलने का जरिया बना दिया।
भारत के सभी राजनितिक दल इस जुगाड़ में इतिहास खंगालते रहते है कि उनको कोई ऐसा चरित्र मिल जाए जिसको आधार बना जनता की भवनाओं से उनकी वोट की राजनीति को चमकाया जा सके।
इसी क्रम में आजकल देखा जा रहा है कि भारतीय महापुरुषों को प्रतियोगी प्रतीकों के रूप में दिखाने का चलन बढ़ गया है । राजनितिक दल एक प्रतीक को छोटा दिखाने के लिए उसके सामने बड़ा प्रतीक खड़ा कर देते है फिर चाहे उसके आदर्शो और चिंतन को अपने पैरों के नीचे ही दबाकर क्यों ना रखे। वस वो इन प्रतीकों के माध्यम से जनता के सामने अपने विचारों को उनके विचारों से जोड़ने का स्वांग रचते हैं परंतु वास्तविकता में ऐसा बिल्कुल नही है और अगर जनता उनके इस स्वांग को अपना समर्थन देती भी है तो उस झूठे प्रचार के आधार पर जिसे वो उस प्रतीक के साथ खड़ा करते है क्योकि भारतीय जनता डिग्री धारी जरूर है किंतु समझदार नही।
भारत का कोई भी राजनीतिक दल ना तो जेपी, लोहिया के समाजवाद से प्रेरित है और ना ही गाँधी के अहिंसा और सर्वोदय से और ना ही कोई दल सरदार पटेल के सौहार्द और धार्मिक जातिगत एकता से और ना ही कोई अंबेडकर जी के सामाजिक उत्थान से और कम्युनिस्ट तो स्वयं ही मालामाल है। सब के सब दलों ने अपनी अपनी राजनीति के अनुसार इन महापुरुषों के स्वरूपो और विचारों को फोटोशॉप से एडिट कर लिया है और जनता के सामने प्रतीकों के रूप खड़ा कर दिया है।
सरदार पटेल ने कभी भी सांप्रदायिक राजनीति को समर्थन नही दिया यहाँ तक कि अपने कार्यकाल में सांप्रदायिक राजनीति को बंद करने का भरसक प्रयास भी किया और उनको गैरकानूनी भी करार दिया और ना ही कभी गाँधी की हत्या को जायज ठहराया और ना ही कभी किसी कांग्रेसी में चाहे नेहरू हो या गाँधी में कभी सार्वजनिक रूप से अविस्वास दिखाया ।
किन्तु राजनितिक दल जरूर एक महापुरुष को दूसरे का दुश्मन सावित करने पर लगे रहते है।
सरदार पटेल ने जिस प्रकार की राजनीति से प्रेरित होकर स्वतंत्रता संग्राम में योगदान दिया उसी राजनीति को सरदार पटेल का दुश्मन कैसे साबित किया जा सकता है यह तो समझ से ही परे है और जिस व्यक्ति से वो सर्वाधिक प्रभावित थे उस व्यक्ति के हत्यारे के समर्थकों को वो कैसे शहीद का दर्जा दिला सकते है यह भी समझ से परे है।
किन्तु राजनीति में ऐसा करना सम्भव हो रहा है और भारतीय राजनीति को महापुरुषों का दंगल बना दिया है। जहां पर इतिहास से उनके वक्तव्यों को निकाल कर उनसे हथियारों में नफरत की धार को तेज़ किया जा रहा है। जबकि महापुरुषों के आदर्श उनका सामाजिक चिंतन और उनके आत्ममंथन से निकले विचारों को तिलांजलि दे दी जाती है।
इसलिए आम जनता को समझना चाहिए कि महापुरुषों के प्रतीकों का दंगल देखने से अच्छा है वर्तमान समय की राजनितिक विचार और प्रयोगिकता पर ज्यादा ध्यान दें जिससे भविष्य के लिए विकासात्मक पथ सुचारू हो सके। क्योकि इतिहास को याद करना जरूरी है किंतु उसमे जीना बिलकुल भी जरूरी नही है।
हर महापुरुष इतिहास के लिए उतना ही जरूरी है जितना वर्तमान के लिए हम। किसी भी महापुरुष ने स्वतंत्रता आंदोलन में यह सोचकर भाग नही लिया कि स्वतंत्रता के बाद हमारे नाम के ज्यादा अस्पताल बनेंगे या स्कूल कालेज या फिर एयरपोर्ट और रेलबे स्टेशन। उनको तात्कालिक परिस्थिति के अनुसार जैसा अच्छा लगा वो समाज के भले के लिए उन्होंने किया , हाँ वर्तमान समय में उसमे खामियां देखि जा सकती है क्योंकि वर्तमान समय की सोच इतिहास की परिस्थियों की सोच नही हो सकती।
सरदार पटेल की जयंती और स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी इसी एकता को प्रदर्शित करती है कि इतिहास कभी एक से नही बनता उसके लिए सैकड़ों का सामाजिक सद्भाव और विकास के लिए आत्म मंथन जरूरी है ।

Language: Hindi
Tag: लेख
321 Views
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