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28 Jun 2024 · 7 min read

भारत में किसानों की स्थिति

हो जाए अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ

आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें काँपना हेमंत में – मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियाँ तत्कालीन किसानों की दयनीय दशा का चरित्र-चित्रण करती हैं। आज भी किसानों की दशा कुछ वैसी ही बनी हुई है। मुझे भारत के द्वितीय प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी की याद आ रही है जिन्होंने एक नारा दिया था- ‘जय जवान – जय किसान’। यह नारा सच में एक नारा ही बन कर रह गया। देश को आजादी मिले 70 वर्ष हो गए। आज भी हमारे देश में ना तो किसानों की हालत में सुधार हुआ है और ना ही जवानों की हालत में सुधार हुआ। खैर! यहाँ अभी हम सिर्फ किसानों की ही बातें करेंगे। किसानों की स्थिति को आज तक किसी ने ना तो समझा और ना ही समझने की कोशिश की गई। देश में वही खुश हैं जिनके हाथ में सत्ता और ताकत है। जिनके हाथ में ‘हल’ है वे तो अभी भी गरीबी और दयनीय अवस्था में दिन काट रहें हैं। यहाँ तक की किसान खुदकशी करने को भी मजबूर हैं। देश के अधिकांश छोटे किसान गरीबी के दुष्चक्र में जकड़े हुए हैं। आज भी गरीबी तथा ऋणग्रस्तता के कारण किसान अपनी उपज, कम कीमतों पर बिचौलियों को बेचने के लिए बाध्य हैं। फिर आजाद भारत में बदला क्या? अंग्रेजों और सामंतों की दासता के दुर्दिनों से जूझता मुंसी प्रेमचंद का ‘होरी’ जो आज भी सामन्ती दासता से जूझ रहा है। आज का सामंत कोई व्यक्ति विशेष या जमींदार नहीं है बल्कि उनकी जगह हमारी अन्धी और बहरी व्यवस्था ने ले ली है। जमींदारों की जगह सरकारी व्यवस्था आ गई है। सत्ता के गलियारे में बैठे सामंतों (राजनीतिज्ञों) ने किसानों का उतना ही शोषण किया है जितना अंग्रेजी हुकुमत के दौरान जमींदारों ने की थी। परिणाम स्वरूप हड्डी-पसली एक करके रात दिन खेतों में काम करने वाला किसान आज भी अपनी जीविका चला पाने में असमर्थ है। रोज-रोज के बढ़ते कर्ज से दबकर आत्महत्या करने को मजबूर है। रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों की बढ़ती कीमत का बोझ किसान उठा नहीं पाता है। उसे बीज, उर्वरक तथा कीटनाशक खरीदने के लिए पैसे उधार लेने पड़ते हैं। जिस अनुपात में बीज, उवर्रक, कीटनाशक तथा सिंचाई की लागत आती है उस अनुपात में खेती की उपज की कीमत उसे नहीं मिलती है जो किसानों की बढ़ती परेशानियों का मूल कारण है।

हम सभी जानते हैं कि भारत गाँवों का कृषि प्रधान देश है। लगभग 60 प्रतिशत जनता खेती पर ही निर्भर करती है। प्राचीन समय से लेकर आज तक किसानों का जीवन अभावों में ही गुजरता रहा है। यदि भारत को उन्नतिशील और सबल राष्ट्र बनाना है तो पहले किसानों को समृद्ध और आत्मनिर्भर बनाना ही होगा। किसान साल भर अनाज पैदा करके देशवासियों को खाद्यान प्रदान करता है। बदले में उन्हें क्या मिलता है? वह अन्न्दाता होते हुए भी स्वयं भूखा और अधनंगा रहता है। वास्तव में भारतीय किसान दीनता का सजीव प्रतिमा है। भारतीय किसान दुनिया के सभी किसानों से अभी भी पिछड़ा हुआ है। जिसके कई कारण है-

आर्थिक परिस्थितियाँ- स्वतंत्रता से पहले किसान सामंत और महाजनों से शोषित थे। अंग्रेजों के शासनकाल में अत्याचार, दमन और दुर्व्यवहार की नीति से किसान तबाह थे। आज स्वतंत्रता के 70 साल बाद भी हमारे किसानों की हालत जस के तस है। किसानों को जमींदार, व्यापारी, पूंजीपति, साहूकार आदि हमेशा से लुटते रहे हैं जिसके कारण उनकी आर्थिक स्थिति नहीं सुधरी। वैसे तो बहुत सारी आर्थिक और सरकारी योजनाएं आई और गई लेकिन उसका लाभ किसानों को नहीं मिली बल्कि व्यवस्था में भ्रष्टाचार के कारण उपर ही उपर सारी सुविधाएँ भ्रष्ट लोगों ने निगल लिया। नतीजतन आज भी भारतीय किसान की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है। भारत का विश्व में फलों व दुग्ध उत्पादन में प्रथम व सब्जियों के उत्पादन में दूसरा स्थान होने के बावजूद इनके उत्पादन के केवल दो प्रतिशत भाग का ही प्रसंस्करण होता है। अमेरिका में किसानों को उनकी आय का 70 प्रतिशत, मलेशिया में 80 प्रतिशत, ब्राजील में 70 प्रतिशत व थाईलैण्ड में 30 प्रतिशत कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण से मिल रहा है जबकि भारत में किसानों को प्रसंस्करण से अपनी आय का केवल 2 प्रतिशत अंश ही प्राप्त होता है।

राजनितिक परिस्थितियां- भारतीय गाँव स्वतंत्रता के पहले से ही राजनीति के प्रभाव में
आ गया था। स्वतंत्रता के बाद तो कोई गांव राजनीति से नहीं बच सका है। 26 जनवरी, 1950 को संविधान आने के बाद समुचित विकास के लिए देशवासियों को समान अधिकार प्रदान किया गया। गांव का विकास करने के लिए पंचायती राज का विकास, प्रखंड स्तर पर प्रखंडविकास समीतियाँ, जिला स्तर पर जिला परिषद् आदि बनाया गया। इन सबसे ग्रामीण किसानों को जो भी फायदा हुआ वह नहीं के बराबर है। इसके विपरीत चुनाव से गांव में होने वाली राजनीति से गावों का वातावरण बदल गया। चुनाव की राजनीति में जातिवाद को बढ़ावा मिला। राजनीतिक पार्टियों ने अपने स्वार्थ के लिए जातिवाद और धर्म को आगे लाकर भोली-भाली जनता का शोषण किया। इस जातीयता एवं सम्प्रदायिकता से विकाश का काम रुक गया। इसके कारण गाँव और गाँव में रहने वाले किसानों की स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हो पाया।

सामाजिक परिस्थितियाँ – ग्रामीण समाज में अंधविश्वास तथा अज्ञानता का बोलबाला था।
भारतीय किसानों की पंरपरागत संस्कार अभी दूर नहीं हुए थे। ज्ञान के अभाव में वे कृषि में आए आधुनिकता की ओर ध्यान नहीं देते थे जिससे कृषि में हानी होती थी। उनकी समाज में स्थिति बहुत ही दयनीय बनी हुई है। मैथिलीशरण गुप्त जी के शब्दों में
देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे
………………………………………………………….
………………………………………………………….
तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं

अब भी उन परिस्थियों में बहुत सुधार नहीं हुआ है।

धार्मिक परिस्थितियाँ – भारतीय ग्रामीण जीवन में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान था। कर्मवाद
और भाग्यवाद पर वे ज्यादा विश्वास करते थे। ग्रामीण समाज में अज्ञानता का बोलबाला था। धर्म के नाम पर पंडितों, जमीदारों, पूंजीपतियों और साहूकारों ने भी किसानों का भरपूर शोषण किया। धर्म ने किसान को इतना सहिष्णु और कुंठित बना दिया कि वह हर जुल्म को अपने पाप का फल मान लेते थे। कृषक समाज मान्यताओं अंध विश्वासों में इतना डूबा हुआ था कि वे धर्म के वास्तविक स्वरूप को जान नहीं पा रहे थे।

सांस्कृतिक परिस्थितियाँ- संस्कृति समाज की एक विरासत है। संस्कृति के माध्यम से ही
व्यक्ति ज्ञान, कला, नैतिकता, प्रथाएँ एवं परम्पराओं को सीखता है। ग्रामीण कलाएँ, पर्व त्यौहार, संस्कार, रीति-रिवाज, खेल-कूद आदि से ही संस्कृति बनती है। किसानों के जीवन में चाहे कितनी भी परेशानियां हो किन्तु वे त्योहारों आदि को बहुत उत्साह और उल्लास के साथ मानाते हैं। बदलती सामाजिक और आर्थिक परिस्थियों में हमारी पुरानी संस्कृतियाँ विलुप्त हो रही हैं। सरकार ने अनेक योजनाओं का निर्माण किया हैं जैसे- खेल, संगीत, नाटक, पुस्तकालय, ग्रंथालय, दूरदर्शन, समाचार पत्र आदि लेकिन दूरदर्शन, मोबाईल और इंटरनेट आदि के कारण लोगों में सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति आकर्षण कम होने लगा हैं।

किसान आन्दोलन- ब्रिटिश काल से लेकर आजतक शोषित किसानों के कई आन्दोलन हुए
नील आन्दोलन, चम्पारन का किसान आन्दोलन, खेड़ा का किसान आन्दोलन आदि। इन आंदोलनों का कारण था साहूकारों और जमींदारों द्वरा किसानों का शोषण, भारी लगान आदि। अस्सी के दशक में राज्यों के अनेक जिलों के मुख्यालयों में किसानों की विशाल रैली का आयोजन किया गया था। चुनाओं को सामने देखकर हर प्रदेश के किसान आन्दोलनों का स्वरुप एक जैसा ही था। महाराष्ट्र और गुजरात में किसानों की समस्या कपास के समर्थन मूल्य तथा उत्तर प्रदेश में गन्ने की कीमत के लिए थी। देश भर के किसानों की सहमती तीन मांगे पर थी। फसल का उचित मूल्य, उचित मजदूरी और कर्ज से मुक्ति। आज भी अपनी इस मौलिक समस्याओं के साथ किसान जूझ रहे हैं। इस पर समय-समय पर अलग-अलग सरकारों ने चर्चा तो किया लेकिन उस चर्चाओं के केन्द्र में किसानों की मौलिक समस्याएँ कम आई और इन सभी कार्यों का राजनीतिकरण बहुत हुआ। फलस्वरूप आन्दोलन पर आन्दोलन होती रहीं लेकिन समस्याएँ सुरसा की मुँह की तरह बढ़ती चली गई। वर्तमान केन्द्र सरकार ने कई विषयों पर कुछ निर्णय तो लिया है लेकिन अभी भी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष- स्वतंत्रता के पहले से लेकर आजतक किसानों की हालत में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ है। विकास के अनेक योजनाएं तो बनी लेकिन भ्रष्टाचार की वजह से सफल नही हुई। किसान हमेशा से आर्थिक कठिनाइयों से जूझते रहे हैं। किसान वर्ग राजनैतिक घटनाओं से बहुत प्रभावित हुए। पंचायती राज्य की स्थापना से सत्ता की बागडोर सम्पन्नों के हाथ में चली गई। राजनितिक पार्टियों ने अपने स्वार्थ के लिए जातिवाद का सहारा लिया। आज हमें कृषि व्यवस्था में सुधार करने, कृषि तकनीक व्यवस्था में परिवर्तन करने तथा जलवायु परिवर्तन के कहर से बचने के लिए प्रभावी कदम उठाना जरूरी है। प्राकृतिक विधि व जैविक खाद के उपयोग से उगाए गए खाद्य पदार्थों की उत्पादन करके किसानों को लाभ उठाने के लिए प्रेरित करना होगा। कृषि उत्पाद नाशवान हैं। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में शीतगृहों की सुविधा उपलब्ध नहीं होने के कारण 15 से 20 प्रतिशत उत्पाद सड़ जाता है। 55 प्रतिशत गाँवों में बीज भण्डारण व्यवस्था नहीं है, 80 प्रतिशत गाँवों में कृषि औजारों के मरम्मत की सुविधा नहीं है व 60 प्रतिशत गाँवों में बाजार केन्द्र नहीं है। इसलिए बीज भंडारण से लेकर उत्पाद की उचित रख रखाव की व्यवस्था करना आवश्यक है। कृषि में जोखिम अधिक है अतः इससे किसानों को सुरक्षा कवच प्रदान करने के लिए फसल बीमा योजना को व्यापक व तार्किक बनाते हुए बीमा प्रीमियम दर कृषकों की आय के अनुपात में रखना होगा।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकारी सुविधावों को किसान तक पहुँचाने की सीधी व्यवस्था बहुत आवश्यक है बरना बिचौलियों के हाथों भोले-भाले किसान लुटते रहेंगे और सरकार की सभी योजनाएं महज योजना बनकर रह जाएँगी। उसका उचित लाभ सही व्यक्ति तक नहीं पहुंच पायेगा।

जय हिन्द

Language: Hindi
72 Views
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