भाग २
पुराण वर्णित कथानुसार उन्हें मातृ-गर्भ में ही उन्हें सम्पूर्ण वेद-बोध हो गया था। मातृ-गर्भ से ही उन्होंने एक दिन अशुद्ध वेद-पाठ करते हुए अपने पिता का खण्डन किया तो पिता क्रुद्ध हो उठे और आठ बार व्यवधान उत्पन्न करने के अपराध में उन्हें आठ अंगों से वक्र होने का शाप दिया। कहा जाता है कि वे जन्म से ही आठो अंग से वक्र थे, इसीलिए उनका नाम अष्टावक्र पड़ा। अपने ज्ञान-बल से उन्होंने राजा जनक के दरबार में आयोजित शास्त्रार्थ में न केवल उपस्थित पण्डितों को चकित कर दिया बल्कि बालपन में जनक को भी उनकी यज्ञशाला में पहुँचकर अपनी तर्कबुद्धि और ज्ञान-कौशल से चमत्कृत कर दिया। अन्तत: शास्त्रार्थ में सभी पण्डितों ने उनकी श्रेष्ठता स्वीकारी
शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी शाखा के द्रष्टा, नेति नेति के प्रवर्तक, मिथिला नरेश जनक के दरबार में हुए शास्त्रार्थ के पूज्यास्पद दार्शनिक याज्ञवल्क्य (ई.पू. सातवीं सदी) मिथिला के ऐसे तत्त्वद्रष्टा हैं, जिनसे पूर्व शास्त्रार्थ और दर्शन की परम्परा में किसी ऋषि का नाम नहीं लिया जाता। वे अपने समय के सर्वोपरि वैदिक ज्ञाता थे। शतपथ ब्राह्मण की रचना उन्होंने ही की। उपनिषद काल की परम विदुषी, वेदज्ञ और ब्रह्माज्ञानी महिला गर्गवंशोद्भव गार्गी, ऋषि याज्ञवल्क्य की समकालीन थीं। मिथिला नरेश जनक के दरबार में आयोजित शास्त्रार्थ में उन्होंने ऋषि याज्ञवल्क्य से प्रश्न किया था। उल्लेखनीय है कि गार्गी द्वारा शालीन और संयमित पद्धति से पूछे गए ब्रह्मविषयक प्रश्नों के कारण ही बृहदारण्यक उपनिषद रचा गया। कहते हैं कि परम तत्त्वज्ञानी याज्ञवल्क्य से प्रश्न करते हुए वे कभी पल भर के लिए भी उत्तेजित, विचलित या भयभीत नहीं हुईं। वैदिक काल की परम विदुषी, ब्रह्मवादिनी स्त्री मैत्रेयी, मित्र ऋषि की पुत्री और महर्षि याज्ञवल्क्य की दूसरी पत्नी थीं। बृहदारण्यक उपनिषद में हुए उल्लेख के अनुसार महर्षि याज्ञवल्क्य उनसे अनेक आध्यात्मिक विषयों पर गहन चर्चा करते थे। सम्भवत: इस कारण उन्हें पति का स्नेह अपेक्षाकृत अधिक मिलता था। फलस्वरूप बड़ी सौत कात्यायनी उनसे बड़ी ईर्ष्या करती थीं। चर्चा है कि संन्यास लेने से पूर्व जब महर्षि याज्ञवल्क्य ने समस्त भौतिक सम्पदा दोनो पत्नियों में बाँटने की बात की तो मैत्रेयी ने अपने हिस्से की सम्पति कात्यायनी को दे देने का आग्रह किया और अपने लिए आत्मज्ञान का उत्कृष्ट अवदान माँगा। विदित है कि छहो भारतीय दर्शन–सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त; के प्रणेता ऋषि क्रमश: कपिल, पतंजलि, गौतम, कणाद, जैमिनि और बादरायण थे। इनमें से सांख्य, न्याय, मीमांसा और वैशेषिक — चार धाराओं के विकास का गहन सम्बन्ध मिथिला से ही है।
सांख्य दर्शन के प्रवर्तक, तत्त्व-ज्ञान के उपदेशक कपिल मुनि मिथिला के थे। वे निरीश्वरवादी थे। उन्होंने कर्मकाण्ड के बजाय ज्ञानकाण्ड को महत्त्व दिया और ध्यान एवं तपस्या का मार्ग प्रशस्त किया। तत्त्व समाससूत्र एवं सांख्य प्रवचनसूत्र उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।
प्रमाण आधारित अर्थ-परीक्षण को न्याय कहा जाता है। दर्शन की इस धारा के प्रवर्तक गौतम को वेद में मन्त्र-द्रष्टा ऋषि माना गया है। उनके मिथिलावासी होने का संकेत स्कन्द पुराण में भी है। महर्षि गौतम के न्यायसूत्रों पर महर्षि वात्स्यायन ने भाष्य लिखा, और उस भाष्य पर उद्योतकर ने वार्तिक लिखा। आगे ‘न्यायवार्तिक तात्पर्य टीका’ शीर्षक से उस वार्तिक की व्याख्या वाचस्पति मिश्र ने लिखी। फिर ‘तात्पर्य-परिशुद्धि’ शीर्षक से उस टीका की टीका उदयनाचार्य ने लिखी। ये सभी आचार्य मिथिला के थे। वाचस्पति मिश्र (सन् 900-980) तो अन्हराठाढी (मधुबनी) के थे। तत्त्वबिन्दु शीर्षक मूल ग्रन्थ की रचना के अलावा उनकी लिखी कई टीकाएँ हैं, जिनमें प्रमुख हैं— न्यायकणिका एवं तत्त्वसमीक्षा (मण्डन मिश्र रचित ग्रन्थ विधिविवेक एवं ब्रह्मसिद्धि की टीका) तथा भामती (ब्रह्मसूत्र की टीका)। नव्य-न्याय दर्शन पर उन्होंने ही आरम्भिक कार्य किया, जिसे मिथिला के गंगेश उपाध्याय (तेरहवी शताब्दी) ने आगे बढ़ाया। वाचस्पति मिश्र द्वितीय (सन् 1410-1490) भी मिथिला (समौल, मधुबनी) के ही माने जाते हैं। सम्भवत: वे राजा भैरव सिंह के समकालीन थे। उनके लिखे कुल इकतालिस ग्रन्थों की सूचना है; दस दर्शनपरक, इकत्तीस स्मृतिपरक।
न्याय-वैशेषिक दर्शन के मूर्द्धन्य आचार्य और प्राचीन न्याय-परम्परा के अन्तिम प्रौढ़ नैयायिक उदयनाचार्य (दसवी शताब्दी का अधोकाल) मिथिला के करियौन गाँव के थे। आस्तिकता के समर्थन में रचित उनकी पाण्डित्यपूर्ण कृति न्यायकुसुमांजलि एक विशिष्ट ग्रन्थ है।
मीमांसासूत्र जैसे विशिष्ट ग्रन्थ के रचयिता कुमारिल भट्ट मिथिला के ही थे। वे महान दार्शनिक थे। प्रकाण्ड अद्वैत चिन्तक मण्डन मिश्र (सन् 615-695) ने उन्हीं के सान्निध्य में मीमांसा दर्शन का अध्ययन किया। माधवाचार्य रचित कल्पित कृति शंकरदिग्विजय के सहारे एक भ्रम फैलाया गया कि शंकराचार्य (सन् 632-664) ने शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र को पराजित कर सुरेश्वराचार्य नाम से अपना शिष्य बनाया और शारदा-पीठ का मठाधीश बनाया, पर वह कथा पूरी तरह कपोल कल्पना है। तथ्य से इस कल्पित कथा का दूर-दूर का सम्बन्ध नहीं है। मण्डन मिश्र की छह प्रसिद्ध कृतियाँ हैं– ब्रह्मसिद्धि, भावना-विवेक, मीमांसानुक्रमणिका, विभ्रम-विवेक, विधि-विवेक, एवं स्फोट-सिद्धि। उसी कल्पित कृति शंकरदिग्विजय के सहारे यह भी कहा जाता है कि मण्डन मिश्र की पत्नी भारती भी प्रकाण्ड विदुषी थीं, पर प्रमाणिक साक्ष्य के अभाव में इस बात पर विश्वास करना कठिन है, क्योंकि एक दूसरे शंकरदिग्विजय में मण्डन मिश्र की पत्नी का नाम शारदा बताया गया है। मेरी संकुचित जानकारी में महाकवि कालिदास के मिथिला के होने का कोई प्रमाणिक साक्ष्य नहीं दिखता, परन्तु मिथिला के लोग जब-तब दावा करते हैं। इस धारा में आगे केशव मिश्र , अयाची मिश्र, शंकर मिश्र जैसे असंख्य नामों का उल्लेख ज्ञान-तत्त्व विमर्श के क्षेत्र में सोदाहरण किया जा सकता है। इन उदाहरणों का उद्देश्य सिर्फ समकालीन नवचिन्तकों को सूचना देना है कि उन्नीसवी-बीसवी-इक्कीसवी शताब्दी के मैथिलों ने किसी असावधानी या अज्ञानता में अपनी भाषा की अवमानना को आमन्त्रण नहीं दिया। उन सब ने तो अपने पूर्वजों द्वारा संस्थापित ज्ञान-परम्परा, मानवीयता एवं राष्ट्रीयता की अवधारणा के विकास में अपना योगदान दिया। क्योंकि मानवता के विकास हेतु कर्म, ज्ञान और भक्ति विषयक विचार-विमर्श हमारे पूर्वज दीर्घकाल से करते आ रहे हैं, उसके संवर्द्धन में अपनी भूमिका निभाते आए हैं। अब इसका अन्यथा उपयोग कोई कर लें तो क्या किया जा सकता है! विगत छह-सात दशकों से हमारा देश तो ऐसे नागरिकों का देश हो गया है, जहाँ लोग दूसरों की त्रासदी को भी अपने पक्ष में भुनाने के अभ्यस्त हो गए हैं। पर इतना तय है कि हमें अपनी इस भव्य विरासत पर आधुनिक पद्धति से शोध अवश्य करना चाहिए।
अपने पूर्वजों एवं समकालीनों के नैष्ठिक भाषा-प्रेम, राष्ट्र-प्रेम एवं भाषिक उदारता के उल्लेख के साथ यहाँ मेरा उद्देश्य अपने सभ्य समाज को सूचित करना है कि इतिहास के पृष्ठों में दबे इन तथ्यों पर विचार हो। दुनिया देखे कि इतनी प्राचीन और समृद्ध रचना-धारा वाली मधुरतम भाषा मैथिली के साथ व्यवस्था, गुटबन्दी एवं प्रशासनिक षड्यन्त्रों का कैसा-कैसा खेल खेला गया है खेला जा रहा है जिससे आज मैथिली और मगही झारखंड और बिहार, यूपी में विस्तृत भाषा रही है यह कहना भी गुनाहगार जैसा लगता है फिर असाम ओड़िशा और बंगाल बात कैसे करू । शायद किसको यह कहना भी मुश्किल सा लगता है बिहार झारखंड यूपी असाम बंगाल आदि के लगभग सभी जिलों के मैथिली साहित्यकार हुए हैं लेकिन अगर बताया फिर अंगिका बज्जिका भाषा विरोधी बोला जाऊगा, यह कोई इतिहास-लेखन नहीं है, कोई गहन-गुह्य आविष्कार नहीं है। यहाँ-वहाँ बिखरे तथ्यों का संकलन है। सम्भव है कि कई लोगों को इनकी जानकारी पहले से हो, किन्तु अब इस पर सूक्ष्मतापूर्वक विचार करने की जरूरत है। तात्त्विक चिन्तन के साथ इस दिशा में किया गया शोध निश्चय ही मैथिल-अस्मिता और अन्तत: भारतीय-अस्मिता के हित में होगा। भाषा, संस्कृति और विरासत के प्रति निरपेक्षता लगभग कृतघ्नता और आत्महत्या के बराबर है। भारतीय संस्कृति में और दुनिया के सभी धर्मों में ईशभक्ति में शीष झुकाने का मानवीय आचार इसीलिए है कि घर से बाहर पाँव रखने से पहले हम विनम्र होना सीखें। विनम्रता कायरता नहीं है और उद्यमियों का सम्मान चाटुकारिता नहीं है। अमानवीय आचरणों के तुमुल कोलाहल के बावजूद आज अकारण ही सम्मान हेतु दी-ली गई राशि को आयकर मुक्त नहीं माना जाता। विचारणीय है कि जिस भूखण्ड का नागरिक अपनों का सम्मान नहीं करता उसका सम्मान दुनिया में कहीं नहीं होता। इसलिए हम अपने नायकों का सम्मान करना, अपनी विरासतीय भव्यता पर गौरवान्वित होना सीखें। अन्तिम बात, कि जिन समकालीनों एवं दिवंगत विद्वानों का जिक्र इस आलेख में नहीं हो पाया, उनके प्रति मेरा कोई वैर-भाव नहीं है। यह मेरी अज्ञता है कि इस आलेख को पूरा करते समय मेरे स्मरण में उनका अवदान प्रकट नहीं हुआ। जिनकी चर्चा यहाँ नहीं हुई, कहीं और, कोई और अवश्य करेंगे।
देवशंकर