भरोसे का मानक
किस्मत बुलंद होती मशहूर कथानक होता
काश के भरोसे का भी कोई मानक होता
कथित अपनापन महज दिखावा है यारों
समझ से परे एकमात्र छलावा है यारों
घेर के खड़े रहते इर्द – इर्द अनेकों रिश्ते
ग़र जिन्दगी में सब कुछ चकाचक होता
काश के भरोसे का भी कोई मानक होता
खुद के जैसा सबको समझना भूल है
यही तो धोखा खाने का असल मूल है
सम्भल जाने का हुनर ग़र पहले आता
तो क्यों ही परिणाम भयानक होता
काश के भरोसे का भी कोई मानक होता
कौन देता है ताउम्र साथ किसी का
बीच राह में छोड़ देना तजुर्बा है जिन्दगी का
ग़र वादा निभाने का हिमायती होता आदमी
तो रिश्तों का जर्रा – जर्रा रौनक़ होता
काश के भरोसे का भी कोई मानक होता
-सिद्धार्थ गोरखपुरी