भरमा रहा है मुझको तेरे हुस्न का बादल।
ग़ज़ल
भरमा रहा है मुझको तेरे हुस्न का बादल।
रखता है कैद करके तेरे जुल्फ का बादल।
करता हूं इन्तेजार तिरा हुस्न की मलिका,
चाहूंगा एक पल को मिले वस्ल का बादल।
इंसान की तरह ये कई रूप के होते,
देखा नहीं कभी भी तेरी शक्ल का बादल।
पल में बहा दे खून की बेबाक ही नदियां,
देखा नहीं इंसान की भी नस्ल का बादल।
गंगो जमीन की गोद में महफूज रहें सब।
मौला करम हो सिर पे रहें अम्न का बादल।
……..✍️ सत्य कुमार प्रेमी
स्वरचित और मौलिक