भटके नौजवानों से
तुम क्यों भटक गए?
तुम्हें भी तो उन्ही ने
संस्कार दिए हैं,
जिससे ये पावन संस्कार
सबको है मिले।
संबंधों की ऊर्जा
क्यों नहीं समझी
जबकि उन्होंने सिखाया
संबंधों को जीना।
राखी की डोर भी
बाॅंध न सकी तुमको
तुम्हें वह पवित्र बंधन
क्यों रास ना आया?
पग -पग पर स्नेह मिला
फिर भी तुम में
आक्रोश फूल बन खिला।
तुम भटक गए हो
सब कुछ होते हुए भी
पावन संस्कार
परिवार का प्यार।
फिर उनसे कैसी शिकायत
जो पलते ही कीचड़ में
उनमें भी खिलता है
सुवासित स्नेह कॅंवल।
मगर,तुम नहीं हो अब
उस पावन स्नेह
के अधिकारी
जिसे देहधारी
संबोधन देते हैं—
‘माॅं’ और ‘बहिन’
क्योंकि
तुम भटक गए हो।
संबंधों की गरिमा
तुम्हारे लिए
मायने नहीं रखती
क्योंकि
तुम अपनी भौतिकतावादी
लालसाओं में हो गए हो अंधे।
मगर जब कभी लौटी
अन्तस् की रोशनी
तुम बहुत पछताओगे
तुम बहुत पछताओगे।
—प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव,
अलवर(राजस्थान)