बढ़ना ही पड़ा…..
तुमने दर्द लिखा था मुझे पढ़ना ही पड़ा ,
इश्क़ में ज़ख्म खाकर भी आगे बढ़ना ही पड़ा।
बड़ा मुश्किल था यूँ तो हाल-ए-दिल बयाँ करना , क्या करते आखिर इस दिल से लड़ना ही पड़ा। वक़्त की शाख़ पर आ बैठे थे कुछ नादान परिन्दें ,
जब वक़्त बदला तो उन्हें उड़ना ही पड़ा।
दिल लगाने की सज़ा तो मिलनी ही थी मुझे , गुरबत के शिखरों पर मुझे आख़िर चढ़ना ही पड़ा।
फिर लौट आई सूखे ठूंठ दरख़्तों पर बहारें , मगर मुझे फिर सुर्ख पत्तों- सा झड़ना ही पड़ा।
“नसीब” कब रोक पाई थी लहरें कश्तियों का रास्ता,
दिल का दर्द छिपाकर फिर मुझे आगे बढ़ना ही पड़ा।
नसीब सभ्रवाल “अक्की”
पानीपत, हरियाणा