बोलो वंदे मातरम
बलिदानों का दुर्लभ अवसर कहीं न जाए बीत
पहन बसंती चोला कवि अब गाओ क्रांति के गीत
वंदे मातरम, बोलो, वंदे मातरम
केसर की घाटी अपनी,पावन हिमशिखर हमारा
स्वर्ण-रजत हिम से आच्छादित अक्षयचिह्न हमारा
रवि की प्रथम किरण का स्वागत करता जो गलियारा
वहाँ तमस न आने पाये यह कर्तव्य हमारा
त्याग और बलिदान हमारी युगों पुरानी रीत
पहन बसंती चोला कवि अब गाओ क्रांति के गीत
वंदे मातरम, बोलो, वंदे मातरम
दशकों तक अन्याय सहा कैसी है यह नादानी
रुधिर उबलता नहीं शिरा में हुआ निरा क्या पानी
भावी पीढ़ी को क्या दे सकेंगे कोई धरोहर
मातृभूमि के काम न आए तो है व्यर्थ युवानी
तिमिर कदापि नहीं पा सकता सत्प्रकाश पर जीत
पहन बसंती चोला कवि अब गाओ क्रांति के गीत
वंदे मातरम बोलो वंदे मातरम
दीपेश द्विवेदी “चिराग़ बैसवारी”