बोलती आँखें
बोलती आँखें
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आँखें बोलती रहीं
होंठ की भाषा
बिना शब्द की ढेरों दिलासा
अपलक निहारना
– सकुचाना
मुझ अकिंचन को यूं अपनाना ,
दूर गिरते झरने से फिसलती
जल धारा की चमक की तरह
झिलमिलाना
मेरी आँखों से टकराने के पहले ही
पलकों का यूं झुक जाना
यूं मचले हुए मन का मिलना
खुद से खुद को पा जाना ,
समर्पण के दूर असीमित क्षितिज तक
आँखों ने,
आज होठो से
शब्दों को हथिया कर
बातों के सिलसिले को
खूबसूरती के साथ आम किया
आँखों ने ही स्वागत
विदा, अर्पण, समर्पण
की अनुभूतियों का
अनोखा अजूबा भावपूर्ण अदान प्रदान
बेहद आसान किया ।
– अवधेश सिंह