बोझ
हो गई बोझ सी ज़िंदगी
पर जाने क्यों नहीं पाती उतार
बढ़ के रोक लेते हैं कदम
मेरे वादे
जो किए थे कभी
ख़्यालों की तन्हाई में
जब उमड़ा था हुज़ूम
तेरी यादों का
रह गई थी कसमसाती
और
लगी थी ठेस उस दिल पर
बेइंतहा करता था जो
यकीं तुझपर
अब
मेरी ज़िंदगी ही हँसती है
पल-पल मुझ पर
मिला चाहतों का सिला
बेरुख़ी बनकर।।
-शालिनी मिश्रा तिवारी
( बहराइच, उ०प्र० )