बैंड – बाजा – बाराती और मरीज़
किसी हिंदू पद्धति से संपन्न होने वाले विवाह के समारोह में यह रीति है कि लड़के वाले अपने रिश्तेदारों एवं इष्ट मित्रों के वर्ग को लेकर पहले किसी खाली स्थान पर या किसी धर्मशाला आदि में एकत्रित होते हैं जिसे जनवासा कहा जाता है और बाराती लोग वहां एकत्रित होकर एक जुलूस के रूप में लड़की वाले के घर विवाह स्थल तक प्रस्थान करते हैं । ऐसी बरातों में एक ब्रास बैंड बाजे वालों का 8 – 10 बजाने वालों का दल बारात की अगुवाई करते हुए चलता है । अब अगर मान लें कि रात को 8:00 बजे विवाह संपन्न होना है तो बैंड बाजा वालों को शाम 5:6 बजे से जनवासा स्थल पर बुला लिया जाता है । वे लोग भी गुजरे अंग्रेजों के जमाने के लॉर्ड वायसराय के जैसी पोशाक पहनकर अपने पीतल के बने फूंक – फूंक और पीट – पीट कर पों – पों ढम ढम की आवाज निकालने वाले उपकरण ले कर वहां आकर खड़े हो जाते हैं । उस समय सभी बाराती तैयार होने में जुटे होते हैं और सबको अपने अपने को सजाने धजाने की चिंता लगी रहती है ।
बैंड बाजा वाले आते ही एक बार पों – पों , ढम ढम की आवाज़ बजा कर सबको अपने आगमन की सूचना दे देते हैं और कुछ देर अपना आर्केस्ट्रा बजाने के बाद कहीं उकड़ूं ( जैसे भारतीय शैली के कमोड पर दीर्घ शंका के निवारण हेतु बैठा जाता है ) की मुद्रा में कहीं बैठकर आराम करने लगते हैं ।
उधर बारातियों में कुछ ऐसे घाघ लोग होते हैं जो तैयार होकर सिर्फ दूसरों पर रौब जमाने का काम करते हैं और ऐसे में उनका पहला शिकार यही बैंड बाजे वाले होते हैं । वे उनके पास जाकर उन्हें फटकार कर कहेंगे
‘ उठो ‘ बैठे क्यों हो ?बजा क्यों नहीं रहे हो ?’
और उनकी इस फटकार के बाद वे बाजे वाले उठ कर पों – पों ढम ढम की आवाज़ निकाल कर अपने कर्ण भेदी शोरगुल से वातावरण को गुंजा देते हैं । फिर वे साहब अपने अहम की तुष्टि कर अन्य किसी पर रौब झाड़ने के लिए चल देते हैं ।
कुछ देर बाद बाजा बजाने वाले कलाकार सुस्ताने के लिए बैठ जाते हैं पर यह महाशय फिर उनके पास जाकर फटकारते हुए कहेंगे
‘ बैठे क्यों हो ? कुछ करो ? बजाते क्यों नहीं ?’
और वह बेचारे फिर पों – पों ढम ढम करने लगते हैं ।
उधर जनवासे में नाश्ता पानी चल रहा होता है और वे बेचारे बैंड बाजा वाले निर्जलीकरण के शिकार प्राणी तिरछी नजरों से नाश्ता पानी को घूर रहे होते हैं इस अभिलाषा से कि शायद कोई उन्हें भी इसके लिए पूछ ले । लेकिन प्रायः ऐसे अवसरों पर उनका नाश्ता पानी भी पहले से तय शर्तों के अधीन ही दिया जाता होगा ।
कुल मिलाकर ऐसे बारातियों में से कुछ लोग उन बैंड बाजा वालों का खून पीने के लिए हर समय तैयार रहते हैं तथा उन्हें ज़रा देर भी दम लेते देख –
तुरंत उन्हें कुछ बजाते क्यों नहीं , कुछ करते क्यों नहीं कहकर उनके पीछे पड़ जाते हैं ।
ऐसे लोग जब नाचने पर उतारू होते हैं तो एक 10 का नोट तब तक दांतों से दबाकर उस बाजे वाले को नहीं देते हैं जब तक कि वह बाजे वाला उनके सामने नाच नाच कर अपना तेल ना निकाल दे। ऐसा लगता है कि आज उस दस के नोट के बदले वे उन बाजा वालों की जीवनभर की सारी फूंक खरीद डालेंगे ।
डॉक्टर संतलाल जी अपने क्षेत्र के अपेक्षाकृत सफल और व्यस्त चिकित्सक हैं । जब कभी डॉ संतलाल जी के आधीन कोई अति गंभीर रोगी भर्ती होता है और वे अपनी पूरी चिकित्सीय कुशलता , निपुणता , ईमानदारी एवं पूर्ण क्षमता से उसकी सेवा में लगे हुए होते हैं तथा उस मरीज़ एवं उसकी बीमारी से संबंधित सभी विकल्प उन्हें स्पष्ट रूप से समझा कर बता चुके होते हैं तब उनको वे बैंड बाजे वाले कलाकार और बराती बेसाख्ता , बहुत याद आते हैं ।
थोड़ी-थोड़ी देर पर जब मरीज़ के कुछ रिश्तेदार अलग-अलग टोली बनाकर पूछने आते हैं डॉक्टर साहब मरीज का क्या हाल है ? यह ठीक तो हो जाएगा ? कोई खतरा तो नहीं है ?
फिर अपनी व्यग्रता प्रगट करते हुए बार-बार कहते हैं
आप कुछ करते क्यों नहीं ?
एक बार फिर चल कर देख लीजिए हम लोगों को कुछ तसल्ली हो जाएगी ।
डॉक्टर साहब जल्दी से कुछ कीजिए ! आप कुछ करते क्यूं नहीं ?
जल्दी से कुछ कीजिये ?
यदि सच कहा जाए तो ऐसी स्थिति में कभी-कभी उनका जी करता है कि काश वे बैंड – बाजे वाले होते और और यह चिकित्सा का व्यवसाय भी एक ऑर्केस्ट्रा की तरह होता तो वे रिश्तेदारों के ऐसा कहने पर कि कुछ करते क्यों नहीं ? तुरंत एक फुंकनी वाला वाद्य यंत्र अपने मुंह में लगा कर और अपने गले से एक ढोल बांधकर उसे अपने पेट के आगे लटका कर पों – पों , ढम – ढम करने लग जाते और तीमारदारों को भी शायद कुछ तसल्ली दे पाते । यह बैंड – बाजा – बराती और डॉक्टर एवं मरीज के बीच के रिश्ते के फर्क को वे आज तक किसी को नहीं समझा सके ।