किसानी संसार
किसानी संसार
देखो,कितना व्यस्त इंसान है!
इस तपती दुपहरी में
गेहूं का गट्ठर रख माथे पर
खलिहान में पहुँचने को हैरान है ।
और देखो,
मैली-सी साड़ी लिपटी हुई कमर में,
हाथ है हॅसिया पर, हॅसिया गेहूं पर,
और हर क्षण गेहूं नीचे गिरता जा रहा है ।
महीनों के परिश्रम का आज फल काटा जा रहा है ।
देखो,वह कर्मठ किसान
डंडे की चोट से एक स्वर निकाल रहा है,
और हर स्वर के साथ धुन निकाल कर
चने से उसका छिलका हटा रहा है ।
वह तीसी है,सरसो है, मटर है,अरहर है,और–
और भी न जाने क्या है,
सबको अलग- अलग
अपने उसी घर में ले जाकर वह
किसी देहरी में रख रहा है ।
अपने साल भर के भोजन का
मंगरू इंतजाम कर रहा है ।
चोकट सायकिल लेकर शाम का ही
कल पर गया है,
सुबह हो रही है, और अभी तक
दॅवरी समाप्त कर वह
सो नहीं पा रहा है ।
किसान की जिंदगी है यह,
या कहिये,यही किसानी संसार है।
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—राजेंद्र प्रसाद गुप्ता, मौलिक/स्वरचित।